पुत्रप्रेम प्रेमचंद
1.भारतीय समाज की विसंगतियों पर करारी
चोट करती, आदर्श
जीवन जीने के लिए प्रेरित करती, साहित्य की कहानी विधा का
सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व करती मुंशी प्रेमचंद की सहज-सुगम लेखनी
आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी अपने रचनाकाल में थी।
2. दरअसल, कहानी की पाश्चात्य विधा को जानने के बावजूद प्रेमचंद
ने अपनी
कहानियों में न केवल अपने समय को ही पूर्ण रूप से
प्रतिबिम्बित व स्पंदित
किया अपितु आदर्श को भी समाज के समक्ष
रखा, जो भारतीय लेखन-चिंतन का मूल
आधार है।
3. उन्होंने जहां एक ओर अंध-परंपराओं पर चोट की वहीं सहज
मानवीय
संभावनाओं और मूल्यों को भी खोजने का प्रयास किया।
इसी वजह से उनकी
कहानियां व उपन्यास हिन्दी साहित्य की
अमर रचनाओं व कृतियों के रूप में
अमिट धरोहर बन गईं।
4. प्रेमचंद ने अपने जीवन में देशभक्ति, प्रामाणिकता और समाज
सुधार का प्रचार
न केवल अपनी लेखनी से किया, बल्कि वे जीवन
में स्वयं उस पर चलते भी रहे।
देश की जनता के लिए उन्होंने
ताउम्र लिखा और जनता के लिए ही जिये। प्रेमचंद
का व्यक्तित्व
चांदनी के समान निर्मल था। यह निर्मलता उनके शैशव से ही
झलकती थी।
5. मुंशी प्रेमचंद का मूलनाम धनपत राय था और इनकी गिनती
हिन्दी साहित्य के महानतम रचनाकारों में की जाती है।
6. प्रमुख रचनाएँ :- सप्तसरोज , लालफीता , प्रेम पचीसी , प्रेम
प्रसून , प्रेम तीर्थ , पंच प्रसून - [ कहानी-संग्रह ] सेवासदन,
गबन , गोदान , कर्मभूमि , रंगभूमि , निर्मला , प्रेमाश्रम ,
कायाकल्प - [ उपंयास ] संग्राम , कर्वला , प्रेम की बेदी - [ नाटक ]
शब्दार्थ
स्तंभ आधार
तसकीन तसल्ली
ज़ेरदारी परेशानी
श्रेणी कक्षा
नागवार अप्रिय
प्रतिकूल विरुद्ध
अर्थशास्त्र वह शास्त्र जिसमें विनिमय
और वितिरण का
विवेचन
होता है ( economics
)
विद्योन्नति विद्या की
उन्नति
नैराश्य निराशा से भरे
वाद-विवाद बहस
शर तीर, बाण
परिमित सीमित
अपव्यय फिजूलखर्ची
कदापि कभी नहीं
बंधक गिरवी के बदले
दिया
जाने वाला ऋण
पथ्यापथ्य इलाज की सामग्री
दुसाध्य लाइलाज
दग्धकारी दुखदायी
बात नागवार लगना अप्रिय लगना
ठीकरे मिट्टी के बर्तनों के
टुकड़े।
प्रश्न : ‘ पुत्रप्रेम ’ कहानी के लेखक का परिचय लिखते हुए प्रस्तुत कहानी के पात्रों
का परिचय दीजिए तथा वर्तमान के परिपेक्ष्य में कहानी की समीक्षा कीजिए।
उत्तर : ‘ पुत्रप्रेम ’
कहानी के लेखक उपंयास सम्राट प्रेमचंद द्वारा लिखी गई है। इन्हें कलम का सिपाही
भी कहा जाता है। इनका असली नाम धनपत राय है। उर्दू में वे नवाबराय के नाम से लिखते
थे। इनकी रचना की भाषा में उर्दू, संस्कृत तथा हिंदी के व्यवहारिक शब्दों का
प्रयोग हुआ है जिसके कारण वह सजीव, व्यवहारिक तथा प्रवाहमयी बन गई है। इनकी प्रमुख
रचनाएँ हैं- मानसरोवर, सेवासदन, रंगभूमि, कर्मभूमि आदि।
प्रस्तुत कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने मानव-हृदय की
दुर्बलताओं एवं संवेदनाओं का अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रांकन किया है। कहानी के
मुख्य पात्र बाबू चैतन्यदास जो एक पिता हैं, के हृदय के द्वंद्व एवं पीड़ा का
अत्यंत हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त इस कहानी के अन्य पात्र हैं
प्रभुदास, ( बड़े बेटे ) शिवदास ( छोटे बेटे ) तपेश्वरी ( पत्नी ) और डॉक्टर आदि
हैं।
प्रस्तुत कहानी वर्तमान परिपेक्ष्य में लिखा गया है कि किस
प्रकार मनुष्य जब अर्थ को अधिक महत्त्व देता है तो, रिश्तों की अहमियत भूल जाता
है, वह एक प्रकार से संवेदनशून्य हो जाता है। प्रस्तुत कहानी में भी “ बाबू चैतन्यदास
ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही
नहीं था, उसका यथायोग्य व्यवहार भी करते थे। “ इस वाक्य से ही ज्ञात हो जाता है कि
वे रुपए-पैसे को अधिक महत्त्व देते थे। चैतन्यदास के दोनों बेटे कॉलेज में पढ़ते थे
और उन दोनों में एक-श्रेणी का ही अंतर था। दोनों चतुर, होनहार युवक थे, पर
प्रभुदास पर पिता का स्नेह अधिक था। वे उसे इंग्लैंड भेज कर बैरिस्टर बनाना चाहते
थे।
परंतु नियति को कुछ और ही मंज़ूर था, प्रभुदास को बी.ए.की
परीक्षा के बाद से ही ज्वर आने लगा। एक महीने इलाज कराने के बाद भी ज्वर कम न हुआ।
उसका इलाज दूसरे डॉक्टर से कराया गया पर कोई आशाजनक परिणाम न निकला। डॉक्टर ने
चैतन्यदास जी को बताया कि प्रभुदास को तपेदिक हुआ है पर, अभी फेफड़ों तक असर नहीं
हुआ है, इसीलिए वे अच्छे हो सकते हैं। चैतन्यदास की इच्छा पर प्रभुदास को
सेनोटोरियम भेजने की व्यवस्था की गई। परंतु दिन पर दिन प्रभुदास की हालत बिगड़ती गई
और उसने भी जीने की इच्छा छोड़ दी। चैतन्यदास पुत्र की बिगड़ती अवस्था से परेशान तो
थे ही, वे उसके इलाज में खर्च हुए पैसों के व्यर्थ होने पर अधिक दुखी थे। उन्होंने
बड़े ही कठोरता से डॉक्टर से पूछा भी था- “ तब आप लोग क्यों
मुझे इस भ्रम में डाले हुए थे कि जाड़े में अच्छे हो जाएँगे ? इस प्रकार दूसरों की सरलता का उपयोग करना अपना
मतलब साधने का साधन हो तो हो, इसे सज्जनता कदापि नहीं कह सकते।“ डॉक्टर ने सलाह दी
कि यदि प्रभुदास को इटली के सेनेटोरियम में भेजा जाए तो शायद वह ठीक हो सकता है।
इस इलाज के लिए कम से कम तीन हज़ार का खर्चा था। चूँकि इसका परिणाम निश्चित नहीं
था, इसलिए चैतन्यदास इस खर्च के पक्ष में न थे और इस फैसले में उनके छोटे बेटे
शिवदास भी उनके साथ थे। उनकी पत्नी तपेश्वरी ने जब तर्क से धन-दौलत की नश्वरता
की लोकोक्तियाँ कहीं और अश्रु विसर्जन किया तो वे प्रभुदास को इटली भेजने के लिए
राज़ी हो गए, परंतु तब जब उनके पास अनिश्चित रुपए आएँगे। “ पूर्व पुरुषों
की संचित जायदाद और रखे हुए रुपए मैं अनिश्चित हित की आशा पर बलिदान नहीं कर
सकता।“
छोटे बेटे शिवदास के इंग्लैंड से कानून की पढ़ाई पूरी करके
लौटने के एक सप्ताह बाद ही प्रभुदास की मृत्यु हो जाती है। चैतन्यदास अपने
संबंधियों के साथ बनारस के मणिकर्णिका घाट पर जब अपने बेटे का अंतिम संस्कार करने
गए तो उन्होंने वहाँ मनुष्यों का समुह ढोल-बाजे के साथ अपने किसी संबंधी के अंतिम
संस्कार के लिए आए थे। चैतन्यदास को जब पता चला कि एक बेटे को अपने पिता के इलाज
के लिए अपना सर्वस्व बेच डालने के बाद भी
इस बात का अफ़सोस न था कि उसके रुपए बर्बाद हुए। वरन् उसे इस बात की तसल्ली
थी कि उसने अपनी कोशिश में कोई कमी नहीं रखी। इस बात का चैतन्यदास के हृदय पर यह
प्रभाव पड़ा कि उन्होंने प्रभुदास की अंत्येष्टि पर सैकड़ों रुपए खर्च कर डाले। उनके
दुखी चित्त की शांति के लिए केवल यही उपाय शेष बचा था।
मेरे विचार से प्रेमचंद जी ने इस कहानी के माध्यम से इस
सच्चाई को सामने रखने का प्रयास किया है कि, रुपए-पैसे का महत्त्व होता है पर, वह
रिश्तों से बढ़ कर नहीं होते। रुपए-पैसे तो फिर से प्राप्त हो सकते हैं परंतु रिश्तों
की दरार किसी भी धन-दौलत से पुनः प्राप्त नहीं की जा सकती है।
आउट साइड
मालती जोशी

v इनकी कहानियाँ
सामाजिक परिवेश पर आधारित होती हैं।
v कहानियों का
मंचन , रेडियो तथा दूरदर्शन पर प्रस्तुत किया
जा चुका
है।
v इनकी रचनाओं का
विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषा में
अनुवाद किया गया है।
v भाषा शैली
अत्यंत रोचक व्यवहारिक तथा सरस है। इनकी
भाषा में बोलचाल के शब्दों की प्रचूरता है।
v इन्हें हिन्दी
और मराठी साहित्यक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
व पुरस्कृत किया गया है।
v प्रमुख रचनाएँ
:- अपने आँगन की छाँव, परख, जीने की राह,
दर्द का रिश्ता इत्यादि हैं।
शब्दार्थ
:-


























प्रश्न
: ’ आउट साइडर ’
कहानी किस प्रकार की कहानी है ? कहानी में आए पात्रों का परिचय देते हुए बताइए कि,
कहानी में लेखिका ने किस प्रकार की समस्या को उजागर किया है तथा इसके माध्यम से
उन्होंने क्या संदेश दिया है ?
उत्तर : ‘ आउट साइडर ’
कहानी सामाजिक परिवेश पर आधारित है। इसकी लेखिका मालती जोशी जी हैं। इन्होंने
अनगिनत कहानियाँ बाल कथाएँ तथा उपन्यास की रचना की है, जिनका अनुवाद भारतीय और
विदेशी भाषाओं में किया गया है। इनकी रचनाओं का रंगमंचन, रेडियो तथा दूरदर्शन पर
भी किया गया है। आम बोलचाल की भाषा को ही इन्होंने रचना में स्थान दिया। इनकी अन्य
रचनाएँ हैं – परख, जीने की राह, दर्द का रिश्ता आदि हैं।
प्रस्तुत
कहानी में परिवार की सबसे बड़ी लड़की नीलम अपने पिता की
आकस्मिक निधन के बाद नौकरी करके तथा अविवाहित रहकर पूरे परिवार के भरण-पोषण का
उत्तरदायित्तव निभाती है। नीलम एक कॉलेज में
अध्यापन का कार्य करती है। उसके तीन भाई हैं – सबसे बड़ा सुदीप
(दीपू)
मझला सु्जीत ( जीत ) और सबसे छोटा
सुमित। पूनम उनकी छोटी
बहन है, जिसके पति का नाम नरेश है। सुदीप कनाडा में
काम करता है, सुजीत बैंक में काम करता है और सुमित मेडिकल कर
रहा है।
परिवार
में सबसे छोटे भाई की शादी के अवसर पर सभी एक-जुट होते हैं। शादी हो जाने के बाद
सभी मिलकर नीलम को शादी करने के लिए मनाते हैं। पैंतालीस साल की उम्र में जब नीलम
को लगता है कि उसने अपनी संपूर्ण जिम्मेदारियों को पूर्ण कर लिया, तब उसके दोनों
भाई , उसकी बहुएँ , उसकी छोटी बहन और घर का दामाद भी उन्हें शादी करने के लिए
मजबूर करते हैं। नीलम जब शादी के प्रस्ताव को ठुकरा देती है, तो उसे पता लगता है
कि सुदीप की पत्नी सुषमा से सुजीत की पत्नी अलका अफ़सोस प्रकट करते हुए बड़े दुख के
साथ कह रही थी कि, “ उसे मालूम था कि दीदी शादी करने से मना कर देंगी, क्योंकि
इतने दिनों तक वह घर में बॉसिंग करती रही हैं, अब ससुराल की धौंस-डपट सहना उनके बस
की बात नहीं है।“ पूनम ने भी अपनी नीलम दीदी को जीवन की सच्चाई बताते हुए कहा कि –
“ दीदी तुमने इस घर को लाख इस ख़ून से सींचा हो,
पर यह घर कभी भी तुम्हारा नहीं हो सकता है। तुम हमेशा इस घर के लिए आउट साइडर ही
रहोगी। अभी तुम्हारे पास नौकरी है, पर जब तुम रिटायर हो जाओगी तो तुम्हारी हैसियत
इस घर में एक फ़ालतु सामान की तरह रह जाएगी, तब तुम्हें मेरी बात याद आएगी।“
नीलम
ने अपनी छोटी बहन पूनम की बात को गंभीरता से नहीं लिया। सुमित की शादी के लिए ली
गई पंद्रह दिनों की छुट्टियाँ जब समाप्त हो गई तो नीलम अपनी छुट्टियों को कुछ और
दिनों के लिए बढ़ाने के उद्देश्य से अपने कॉलेज गई तो उन्हें प्रमोशन के साथ उनके
ट्रांस्फर की खबर उनके प्रिंसिपल ने दी। परंतु, नीलम को अपने भाइयों के प्रेम पर
पूरा भरोसा था इसीलिए उसने इस प्रमोशन और ट्रांस्फर दोनों को ठुकरा दिया। उनकी यह
गलतफ़हमी थी कि उनके भाई उन्हें कभी भी अपने से दूर नहीं जाने देंगे। परंतु घर जाकर
जब उसने स्वयं अलका के मुख से सुना कि, उनका उस घर में रहना अलका को नहीं भाता है।
उसका मानना था कि दीदी के रहते , वह घर कभी भी पूरी तरह से उसका नहीं हो सकता है
तथा दीदी के कारण ही उसे अपनी बहुत सी इच्छाओं का गला घोटना पड़ता है। नीलम को जब
घर में अपनी स्थिति की सही जानकारी होती है और उसे अपनी छोटी बहन पूनम की कही बात
आज समझ में आती है। नीलम एक संवेदनशील महिला थी परंतु वह एक जुझारू स्त्री भी थी।
वास्तविकता का बोध होते ही उसने परिवार से अलग
होने का निश्चय किया। नीलम ने अपना प्रमोशन और ट्रांस्फर दोनों स्वीकर कर
लिया।
अतः
हम देखते हैं कि जिस घर के लिए नीलम ने अपने सपने, अपनी खुशियाँ और अपनी ज़िंदगी
लगा दी थी, उसी घर के लोगों ने उन्हें आउट साइडर बना दिया था। नीलम एक स्वाभिमानी
स्त्री थी, उसने उनसे पहले ही स्वयं को आउट साइडर बना लिया।
इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने समाज में
अविवाहित स्त्रियों की त्रासदी को दिखाने का प्रयास किया है। लेखिका के अनुसार
समाज में जब कोई स्त्री पुरुषों की तरह अपने कंधों पर अपने परिवार की
ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाती है और निष्ठापूर्वक उसे निभाती है तो उसे घर का अधिपति
नहीं वरन् आउट साइडर ही माना जाता है। यह हमारे समाज की एक विकट समस्या है कि
लड़की का घर, जहाँ उसका जन्म हुआ है, वह कभी अपना नहीं होता। उसका ससुराल ही उसका
घर होता है। अर्थात् जिस लड़की की शादी न हो उसका कभी अपना घर ही नहीं होगा । वह
हमेशा हर किसी के लिए आउट साइडर ही होगी।
इस कहानी के माध्यम से लेखिका ने यह संदेश
दिया है कि इस पुरुष-प्रधान समाज में यदि एक स्वाभिमानी स्त्री चाहे तो अपने
आत्म-सम्मान को सदैव सुरक्षित रख सकती है।
संस्कृति क्या है ?
शब्दार्थ :-
मद - अहंकार, नशा
गढ़ना - बनाना
मत्सर - द्वेष, क्रोध
खोह - गुफ़ा
रूढ़ियाँ - पुरानी या परंपरागत बातें
विकार - दोष
प्रश्न: संस्कृति ऐसी चीज़ है जिसे लक्षणों से तो हम जान सकते हैं, किन्तु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अंशो में वह सभ्यता से भिन्न है। सोदाहरण समझाएँ।
उत्तर : ’ संस्कृति क्या है ’ दिनकर द्वारा लिखी एक विचारात्मक निबंध है। इनकी रचनाओं में सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा मिलती है। इनकी रचना का मुख्य स्वर उद्बोधन है। इनकी भाषा सहज तथा व्यवहारिक हैं। इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, तथा द्विवेदी पदक से सम्मानित किया गया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ रेणुका, कुरुक्षेत्र, हुंकार आदि हैं।
दिनकर जी ने अपने निबंध में बताया है कि, संस्कृति के लक्षण बताए जा सकते हैं, पर उसकी परिभाषा देना कठिन है। सभ्यता और संस्कृति में अंतर होता है।
" सभ्यता वो चीज़ है जो हमारे पास है। संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है। " दिनकर जी ने इसे एक उदाहरण से भी स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि मोटर, महल, सड़क, यातायात के साधन, पोशाक, खान-पान आदि सभ्यता के सामान हैं, मगर पोशाक पहनने और भोजन करने में जो कला है, वह संस्कृति की चीज़ है।
दिनकर जी के अनुसार यह अकसर पाया जाता है कि हर सुसभ्य आदमी को सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य होता है क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाट-बाट है।
![]() |
रामधारी सिंह ’ दिनकर ’ |
- हिन्दी के प्रमुख लेखक, कवि व निबंधकार थे।
- आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं ।
- उन्होंने संस्कृत , बांगला, अँग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
- ’ दिनकर’स्वतंत्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गए।
- वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे।
- इन्होंने जीवन की शुरुआत अध्यापक के रूप में की थी।
- इनकी रचनाओं में सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय समस्याओं का समावेश है।
- उन्होंने सामाजिक और आर्थिक समानता और शोषण को अपनी रचना का विषय बनाया।
- इनकी रचना की भाषा शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी है, जिसमें इन्होंने तत्सम शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है।
- इन्हें अपनी रचनाओं के लिए ’ साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा द्विवेदी पदक ’ प्राप्त हुए हैं।
- प्रमुख रचनाएँ :- रेणुका, हुंकार, कुरूक्षेत्र, सीपी और शंख , परशुराम की प्रतीज्ञा आदि हैं।
शब्दार्थ :-
मद - अहंकार, नशा
गढ़ना - बनाना
मत्सर - द्वेष, क्रोध
खोह - गुफ़ा
रूढ़ियाँ - पुरानी या परंपरागत बातें
विकार - दोष
प्रश्न: संस्कृति ऐसी चीज़ है जिसे लक्षणों से तो हम जान सकते हैं, किन्तु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अंशो में वह सभ्यता से भिन्न है। सोदाहरण समझाएँ।
उत्तर : ’ संस्कृति क्या है ’ दिनकर द्वारा लिखी एक विचारात्मक निबंध है। इनकी रचनाओं में सामाजिक जीवन एवं राष्ट्रीय समस्याओं की चर्चा मिलती है। इनकी रचना का मुख्य स्वर उद्बोधन है। इनकी भाषा सहज तथा व्यवहारिक हैं। इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, तथा द्विवेदी पदक से सम्मानित किया गया है। इनकी प्रमुख रचनाएँ रेणुका, कुरुक्षेत्र, हुंकार आदि हैं।
दिनकर जी ने अपने निबंध में बताया है कि, संस्कृति के लक्षण बताए जा सकते हैं, पर उसकी परिभाषा देना कठिन है। सभ्यता और संस्कृति में अंतर होता है।
" सभ्यता वो चीज़ है जो हमारे पास है। संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है। " दिनकर जी ने इसे एक उदाहरण से भी स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि मोटर, महल, सड़क, यातायात के साधन, पोशाक, खान-पान आदि सभ्यता के सामान हैं, मगर पोशाक पहनने और भोजन करने में जो कला है, वह संस्कृति की चीज़ है।
दिनकर जी के अनुसार यह अकसर पाया जाता है कि हर सुसभ्य आदमी को सुसंस्कृत नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य होता है क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाट-बाट है।
गौरी
![]() |
सुभद्राकुमारी चौहान |
* सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं।

थीं।
* दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह
प्रकाशित हुए हैं।
* अधिक प्रसिद्धि ’ झाँसी की रानी ’
कविता के कारण हुई।
* स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल
की यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी
अनुभूतियों को कहानी में व्यक्त किया।
* ’ बिखरे मोती ’ उनकी पहली कहानी संग्रह
है।
* भाषा सरल तथा काव्यात्मक है।
* प्रमुख रचनाएँ - होली, कदम के फूल,
किस्मत, मछुए की बेटी, अनुरोध आदि
कुल १४ कहानियाँ हैं।
* पुरस्कार:- राष्ट्रप्रेम की भावना के लिए
एक तटरक्षक जहाज को उनका नाम दिया
गया। डाकतार विभाग ने २५ पैसे का डाक
टिकट जारी किया।
प्रश्न : गौरी कौन है ? उसका स्वभाव कैसा था और क्यों ? उसे किस बात की आत्मग्लानी
होती है ? उस समय वह क्या सोचती है ? कौन, किसके लिए चिंता की सामग्री है ? वह
अपने पिता से विवाह के लिए मना क्यों नहीं कर पाती ? किसके प्रति गौरी का मन श्रद्धा
और घृणा से भर जाता है और क्यों ? गौरी को किस बात की चिंता थी और क्यों ? सीताराम
जी का संक्षिप्त परिचय दें। वे दो बच्चों के होते हुए भी क्यों विवाह करना चाहते
थे ? गौरी ने कानपुर जाने की हठ क्यों की ? वहाँ जाकर उसने क्या किया ?
उत्तर : सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित 'गौरी’ एक
प्रसिद्ध कहानी है। सुभद्राजी आधुनिक काल की रचनाकार हैं। देश-प्रेम की भावना
इनके हृदय में कूट-कूट कर भरी थी। इन्होंने अपनी रचनाओं मे शुद्ध खड़ी बोली का
प्रयोग किया है। रचनाएँ : त्रिधारा, मुकुल, बिखड़े मोती, उन्मादिनी आदि।
गौरी सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित 'गौरी’
कहानी की प्रमुख पात्रा है। वह बाबू राधाकृष्ण और कुन्ती की इकलौती संतान है।अकेली
संतान होने के कारण छुटपन से ही उसका बड़ा
लाड़-प्यार हुआ था। प्राय: उसकी उचित-अनुचित सभी हठ पूरी हुआ करती थी इसलिए गौरी का
स्वभाव निर्भीक, दृढ़-निश्चयी और हठीला था। तभी तो पिता के बाहर जाने पर भी वह उनके
लौटने तक का भी इंतज़ार नहीं करती और माँ के मना करने पर भी वह सीतारामजी के बच्चों
की देख-रेख करने निकल जाती है। इस संदर्भ में निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत है
-
" नहीं माँ, मैं पागल नहीं हूँ। बच्चों को तुम भी
जानती हो। उनके पिता को रजद्रोह के मामले में साल-भर को सजा हो गई है। बच्चे छोटे
हैं। मैं जाऊँगी माँ, मुझे जाना ही पड़ेगा।"
उसे इस
बात की आत्मग्लानी होती है कि रात-दिन उसके माता-पिता उसके विवाह के लिए चिंतित
रहते हैं। उन्हें इसके अलावा और कुछ सूझता ही नहीं है।उस समय
वह सोचती है कि धरती फटे और वह उसमे समा जाए। गौरी जो
पूनो की चाँद की तरह बढ़ना जानती थी वह अपने माता-पिता के लिए चिंता की सामग्री है। संकोच और
लज्जा के कारण वह अपने पिता से विवाह के लिए मना नहीं कर पाती है।
सीतारामजी
के प्रति गौरी का मन श्रद्धा से भर जाता है क्योंकि वे विनयी, नम्र और सादगी की
प्रतिमा थे। साथ ही देशभक्त, त्यागी और वीरों के लिए उनके मन में सम्मान की
भावना थी तथा अपने भावी वर-नायब तहसीलदार साहब के प्रति उनका मन घृणा से भर जाता
है क्योंकि वे अपने आराम, अपने ऐश के लिए ब्रिटिश सरकार के इशारे मात्र पर निरीह
देशवासियों के गले पर छूरी फेरते हैं। वे कुछ चाँदी के टुकड़ों के लिए निन्दनीय
कर्म करते हैं।
गौरी को
सीतारामजी के बच्चों की चिंता थी क्योंकि सत्याग्रह संग्राम छिड़ गया था। उसे लग
रहा था कि कहीं सीतारामजी गिरफ्तार कर लिए गए तो बच्चों की देख-रेख कौन करेगा।
सीतारामजी
की उम्र ३५-३६ वर्ष थी। वे दो बच्चों के पिता थे। हृदय उनका दर्पण की तरह साफ था।
देशभक्त होने के कारण वे खादी का कुरता और गाँधी टोपी पहनते थे। तीस रुपए उनकी
तन्खाह थी।कांग्रेस दफ्तर में सेक्रेटरी का काम करते थे। तीन बार जेल जा चुके थे।
स्त्री जाति के प्रति सम्मान की भावना थी। इस संदर्भ में राधाकृष्णजी को कहे
उनके वाक्य प्रस्तुत हैं -
" नहीं साहब ! मैं लड़की देखने न आऊँगा। इस तरह लड़की
देखकर मुझसे किसी लड़की का अपमान नहीं किया जाता।"
वे दो
बच्चों के होते हुए भी विवाह करना चाहते थे क्योंकि उनकी पत्नी का देहांत हो
चुका था और वे अंग्रेजी शाशन के खिलाफ आवाज उठाते थे अर्थात वे देशभक्त थे। कभी
भी अंग्रेजी सरकार के अत्याचार का शिकार हो सकते थे। ऐसी अवस्था में घर में उन दो
छोटे बच्चों के अलावा और कोई नहीं था जो उनकी अनुपस्थिति में उन बच्चों की
देख-रेख कर सके। यही कारण है कि वे विवाह करना चाहते थे।
एक दिन
अख़बार पढ़ने के दौरान उसे ज्ञात हुआ कि सीतारामजी गिरफ्तार हो गए, और उन्हें एक
साल का सपरिश्रम कारावास हुआ है। अत: उनकी अनुपस्थिति में उन बच्चों की देख-रेख करने के लिए गौरी ने कानपुर जाने की
हठ की।
वहाँ
जाकर उसने उन बच्चों की माँ समान परवरिश की।
अंतत: हम
कह सकते हैं कि न केवल सीतारामजी ने देश की सेवा की बल्कि गौरी ने भी अपनी अहम्
भूमिका निभाई।उसके हृदय में भी अपने देश के लिए, देश के लिए अपना जीवन उत्सर्ग
करने वाले लोगों के लिए श्रद्धा और सम्मान की भावना है।
शरणागत
![]() |
वृंदावनलाल वर्मा
शब्दार्थ :
रोजगार पेशा, काम
गाँठ पैसे की पोटली
बीहड़ घना
बसेरा रहने की जगह
कर्मण्य-अकर्मण्य काम की-बेकार
पेशगी कार्य से पहले दी जाने वाली रक़म
शामत मुसीबत
पौर आँगन
आगंतुक आने वाला
मुकर्रर निश्चित, तय
अव्यक्त बिना प्रकट किए
सपत्नीक पत्नी के साथ
स्थगित रोक देना
राहगीर यात्री
क्षुब्ध दुखी
![]() अवतरण पर प्रश्न " पाँच-छह मील चलने के बाद संध्या हो गई। गाँव कोई पास न था। रज्जब की गाड़ी धीरे-धीरे चली जा रही थी। उसकी पत्नी बेहोश-सी थी। रज्जब ने अपनी कमर टटोली। रकम सुरक्षित थे।"
प्रश्न :
क) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस पाठ से ली गई है ? इसके लेखक कौन हैं ?
उनकी एक अन्य रचना का नाम लिखें।
क): प्रस्तुत पंक्तियाँ " शरणागत " पाठ से ली गई है। इसके लेखक
वृंदावनलाल वर्मा जी हैं। उनकी एक अन्य रचना का नाम है- दबे
पाँव।
ख) रज्जब कहाँ से पाँच-छह मील चल चुका था ? उसे किस गाँव
जाना था ? उसे किस परेशानी का सामना करना पड़ रहा था ?
ख) रज्जब मड़पुरा गाँव से पाँच-छह मील आगे चला आया था। उसे
अपने गाँव ललितपुर जाना था। उसे इस परेशानी का सामना करना
पड़ा कि, उसकी पत्नी ज्वर से पीड़ित थी, वह पैदल नहीं चल पा रही
थी और इसीलिए रज्जब को अधिक किराया देकर एक बैलगाड़ी
लेनी पड़ी थी। अँधेरा हो रहा था और उसे अपनी गाँठ में रखी रकम
की सुरक्षा की चिंता हो रही थी।
ग) रज्जब को अपनी कमर टटोलने पर क्या-क्या स्मरण हो आया ?
ग) रज्जब को अपनी कमर टटोलने पर यह अहसास हुआ कि उसकी
अंटी का बोझ कुछ कम हो गया है। उसे स्मरण हो आया कि पहले तो
पत्नी की बीमारी के कारण उसे गाड़ीवान को अधिक किराया देना पड़ा
था, और बाद में पत्नी के ज्वर बढ़ जाने के कारण उसे यात्रा कुछ घंटों
के लिय स्थगित करनी पड़ी थी तथा इसके लिए गाड़ीवान ने अलग से
किराए भी लिए थे।
घ) प्रस्तुत पाठ में शरणागत कौन था और किसका ? शरणागत की रक्षा किससे और किस प्रकार की गई ?
घ) प्रस्तुत पाठ में एक कसाई रज्जब और उसकी ज्वर ग्रस्त पत्नी थे ?
उन्होंने बीहड़ और सुनसान मार्ग होने के कारण मड़पुरा नामक
गाँव के एक गरीब ठाकुर के यहाँ शरण ली। गाँव के लोग उन्हें डर के
मारे ’ राजा ’ शब्द से संबोधित करते थे। दूसरे दिन जब वह अपने
गाँव ललितपुर के लिए रवाना हुआ और मार्ग में ही अँधेरा हो गया था। अचानक कुछ लठैत ने रज्जब की बैलगाड़ी को घेर लिया और उसे सब कुछ दे देने का आदेश दिया। परंतु जैसे ही एक लठैत ने रज्जब को
जान से मारने की धमकी दी उन लठैतों का मुखिया जो वास्तव में
गरीब ठाकुर था, उसे रोक दिया। गरीब ठाकुर ने गाड़ीवान को भी
सचेत कर दिया कि, यदि वह रज्जब और उसकी पत्नी को सुरक्षित
ललितपुर नहीं पहुँचाएगा तो उसकी खैर नहीं। ठाकुर अपने साथियों
के विरुद्ध जाते हुए अपने शरणागत की रक्षा करता है। वह अपने
साथियों से कहता भी है " परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात नहीं
करता, इस बात को गाँठ बाँध लेना।"
प्रश्न : मनुष्य के सिद्धांत जाति, धर्म और अर्थ पर किस
प्रकार भारी पड़ते हैं ? ‘ शरणागत ’ कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : ' शरणागत ' कहानी वृन्दावनलाल वर्मा द्वारा लिखित कहानियों में से एक
बहुचर्चित कहानी है। इस कहानी में'
मड़पुरा
' नामक गाँव के लोगों की
मानसिकता को उजागर किया गया है। मड़पुरा में हिन्दू रहते थे। किसी मुसलमान कोअपने
यहाँ आश्रय देना उनके सिद्धांतों के विरुद्ध था। यहीकारण है कि रज्जब जब गाँव
में आया तब उसने कितने ही
लोगों
से आश्रय माँगा पर सबने मना कर दिया।वास्तव में हुआ यह कि वह ललितपुर का एक कसाई था। उसके पास दो-तीन सौ
की मोटी रकम थी। उसकी पत्नी को
बुखार था। वह गाड़ी नहीं करना चाहता था क्योंकि उससे खर्च बढ़ता। अतः उसने एक रात मड़पुरा में बसेरा लेने का निश्चय किया। उस समय आजकल की तरह होटल तो नहीं होते थे।
किसी घर में ही
आश्रय माँगा जाता था या किसी
पेड़ आदि के नीचे सोने
से तबीयत और खराब हो
जाती। अतः वह किसी घर
के पौर में बसेरा करना चाहता था। जाँति-पाँति को मानने
वाले लोग किसी मुसलमान,
वह
भी कसाई, को अपने
यहाँ आसरा नहीं दे सकते थे
क्योंकि लोकमत इसके विरुद्ध था।
लोग अजीब-अजीब बातें
बनाएँगे। वह जहाँ भी
गया उसे निराशा का ही मुँह
देखना पड़ा।
अंत में वह गाँव के
एक गरीब ठाकुर के
यहाँ पहुँचा। उसने अपनी समस्या उसके सामने रखकर एक
रात के लिए बसेरा माँगा। दाऊजी ने कड़क आवाज़ में कहा कि क्या वह नहीं जानता कि यह किसका
घर है ?
रज्जब ने कहा, “ यह राजा का घर है। इसलिए शरण में आया हूँ।
”
शरण में आए व्यक्ति की सहायता करना, उसकी रक्षा करना हिन्दू
बुन्देला का धर्म है। उस समय यह नहीं देखा जाता कि आने वाला किस धर्म अथवा जाति का
है। शरणागत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति भी दे देते हैं। ठाकुर भी शरण की बात
सुनकर नरम पड़ गया। वह समझ गया कि गाँव में किसी ने उसे बसेरा नहीं दिया इस कारण ही
रज्जब उसकी शरण में आया था। अतः वह रज्जब के मुसलमान कसाई होने पर भी अपनी पौर में
रात व्यतीत करने की अनुमति देता है। ठाकुर , रज्ज्ब से उसके जाने का समय भी पूछता
है, और उसे यह सुनकर संतुष्टि होती है कि वे अँधेरे में ही चले जायेंगे । इससे यह
ज्ञात होता है कि उस समय धर्म और जाति को लेकर समाज में कट्टरता
व्याप्त थी।
दूसरे दिन रज्जब की पत्नी का बुखार तो कुछ कम हो गया था पर
शरीर में दर्द होने के कारण वह चल नहीं सकती थी। अतः रज्जब अँधेरे में नहीं जा
सका। राजा ने जब उसे वहाँ पड़े देखा तो कुपित होकर बोला –
“ मैंने खूब मेहमान इकट्ठे किए हैं। गाँव भर थोड़ी देर में तुम
लोगों को मेरी पौर में टिका हुआ
देखकर तरह-तरह की
बकवास करेगा। तुम बाहर जाओ और इसी समय। ”
शरणागत को रात भर का आश्रय देना उसका अलग सिद्धान्त था पर लोक मत का आदर करना
अलग। दोनों में अंतर था । दोनों को निभाना उसका कर्त्तव्य था। यद्यपि गाँव में उसका
दबदबा था। किसी में उसके विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं थी। पर अव्यक्त लोकमत का प्रभाव
उसके मन में भी था। जहाँ तक सम्भव था उसने शरणागत की सहायता की। रज्जब को वहाँ से जाना
पड़ा। उसे उम्मीद थी कि दो पहर में पत्नी की तबीयत ठीक हो जाएगी। पर जब कोई फ़र्क नहीं
पड़ा तो उसे गाड़ी की व्यवस्था करनी पड़ी। बड़ी कठिनाई से अधिक किराया लेकर एक छोटी जाति
का व्यक्ति ललितपुर जाने के लिए तैयार हुआ।
जब पत्नी की तबीयत और अधिक बिगड़ गयी और यात्रा कुछ घंटों के लिए स्थागित करनी पड़ी
तो रज्जब पुनः समय से ललितपुर न पहुँचने की परिस्थिति में आ गया। गाड़ीवान भी अँध्रेरा
होने के कारण आगे नहीं जाना चाहता था।
“ इतने किराये में काम नहीं चल सकेगा। अपना रुपया वापस लो। ”
मजबूरी में रज्जब को गाड़ीवान को कुछ और पैसे देने पड़े। घने जंगल से गुज़रती हुई
बैलगाड़ी को अचानक कुछ लठैतों ने रोक दिया और रज्जब को सब कुछ दे देने की धमकी दी। परंतु
जैसे ही लठैत ने रज्जब को पहचाना, वह गाड़ी से नीचे उतर आया। उसने अपने साथियों को उसे
छोड़ देने को कहा क्योंकि उसकी कमाई अपवित्र थी। परंतु उसके साथियों ने इन तर्कों को
अस्वीकार कर दिया। उन्होंने ठाकुर का विरोध किया। चूँकि रज्जब राजा का शरणागत था, राजा
ने अपने साथियों की परवाह न करते हुए कहा –
“ खबरदार , जो उसे छुआ। नीचे उतरो, नहीं तो तुम्हारा सिर चूर
किये देता हूँ। वह मेरी शरण में आया था। ”
“ ललितपुर में उन्हें ठिकाने तक छोड़कर आना, नहीं तो तुम्हारी
खैर नहीं। ”
अंत में अपने साथियों को भी स्पष्ट शब्दों में यह बता दिया कि – “ न आना। मैं अकेले ही बहुत कर गुज़रता हूँ। परंतु बुंदेला शरणागत के साथ घात
नहीं करता। इस बात को गाँठ बाँध लेना। ”
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि सिद्धांतवादी व्यक्ति अपने उसूलों के पालन के लिए
जाति-पाँति, धर्म या धन की चिंता नहीं करता। ऐसे व्यक्ति ही अपना नाम इतिहास में रोशन
कर जाते हैं।
क्या निराश हुआ जाए ?
![]()
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
परिचय :
* आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 में गाँव आरत
दूबे का छपरा, शिला बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ।
* उन्होंने उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की तथा
शांतिनिकेतन, काशी हिंदू विश्वविद्यालय एवं पंजाब विश्वविद्यालय
में अध्यापन-कार्य किया।
* साहित्य का इतिहास, आलोचना, शोध, उपन्यास और निबंध् लेखन के क्षेत्रा में द्विवेदी जी का योगदान विशेष उल्लेखनीय है।
* अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, बाणभ‘ की आत्मकथा, पुनर्नवा, हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास, हिंदी साहित्य की भूमिका, कबीर उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
* उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं पद्मभूषण अलंकरण से सम्मानित किया गया।
* द्विवेदी जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में उच्च कोटि की रचनाएँ कीं। उनके ललित निबंध विशेष उल्लेखनीय हैं।
* जटिल, गंभीर और दर्शन प्रधान बातों को भी सरल, सुबोध एवं मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करना द्विवेदी जी के लेखन की विशेषता है। उनका रचना-कर्म एक सहृदय विद्वान का रचना-कर्म है जिसमें शास्त्रा के ज्ञान, परंपरा के बोध और लोकजीवन के अनुभव का सृजनात्मक सामंजस्य है।
* सन् 1979 में उनका देहांत हो गया।
![]() मुहावरें / शब्दार्थ : मन बैठ जाना निराश हो जाना तस्करी गैरकानुनी व्यवसाय गह्वर गड्ढा मनीषियों विद्वान निरीह बेचारे श्रमजीवी मज़दूर भीरु डरपोक आस्था विश्वास बीभत्सता डरावना बिकराल भयंकर बेहिसाब ज़रूरत से ज़्यादा अनुपात तुलना [ Ratio ] समकालीन एक ही समय के विधि निषेधों नियमानुसार पाबंदी उहापोह असमंजस, दुविधा ध्वंस नाश निकॄष्ट बुरा, हीन, तुच्छ उपेक्षा अवहेलना, अपमान गुमराह भटका कायदे नियम विकार दोष रूढ़िग्रस्त दकियानूसी आक्रोश क्रोध उजागर प्रकट लुप्त गायब गरिमा गर्व अवांछित बेकार वंचना धोखा-छल चेहरे पर हवाइयाँ उड़ना घबरा जाना जान में जान आना निश्चिंत होना
प्रश्न : ‘ क्या निराश हुआ जाए ? ’ किस
प्रकार का पाठ है ? इसके उद्देश्य की चर्चा पाठ में दिए उदाहरणों से कीजिए तथा
यह भी बताएँ कि आपने प्रस्तुत पाठ से क्या सीखा ?
उत्तर : ‘ क्या निराश हुआ जाए ? ’ हजारी प्रसाद द्विवेदी
रचित
एक उत्कृष्ट निबंध है। आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म
सन् 1907 में गाँव
आरत दूबे का छपरा, शिला
बलिया (उत्तर
प्रदेश) में हुआ। उन्होंने उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से
प्राप्त की तथा शांतिनिकेतन, काशी
हिंदू विश्वविद्यालय एवं
पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन-कार्य किया। सन् 1979 में
उनका देहांत हो गया।साहित्य का
इतिहास, आलोचना, शोध
, उपन्यास
और निबंध् लेखन के क्षेत्रा में द्विवेदी जी का योगदान
विशेष उल्लेखनीय है।अशोक के फूल, कुटज, कल्पलता, बाणभट्ट
‘ की आत्मकथा, पुनर्नवा, हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास, हिंदी
साहित्य की भूमिका, कबीर उनकी प्रसि( कृतियाँ हैं। उन्हें साहित्य
अकादमी पुरस्कार एवं
पद्मभूषण अलंकरण से सम्मानित किया
गया। द्विवेदी जी ने साहित्य की अनेक विधाओं में
उच्च कोटि
की रचनाएँ कीं। उनके ललित निबंध विशेष उल्लेखनीय हैं।
जटिल, गंभीर और दर्शन प्रधान बातों को भी सरल, सुबोध एवं
मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत करना द्विवेदी जी के लेखन
की
विशेषता है। उनका रचना-कर्म एक सहृदय विद्वान का रचना-
कर्म है जिसमें शास्त्रा
के ज्ञान, परंपरा के बोध और लोकजीवन के
अनुभव का
सृजनात्मक सामंजस्य है।
प्रस्तुत
निबंध आशावादी निबंध है, जिसके माध्यम से समाज में
फैले नकारात्मक सोच और निराशा
को समाप्त करना है।
द्विवेदी जी की प्रस्तुत निबंध का उद्देश्य ही समाज से
नकारात्मक सोच का नाश करना और सकारात्मक सोच को
जगह देना है। अपने इस उद्देश्य
की पूर्ति के लिए उन्होंने
भारतीयों को महान भारतवर्ष की भी याद दिलाई है। द्विवेदी
जी
का मानना है कि, देश में फैले भ्रष्टाचार, तस्करी, ठगी, डकैती,
चोरी और आरोप-प्रत्यारोप
के कारण ही लोगों में निराशा और
नकारात्मक सोच ने अपना घर बनाया है। लोगों ने इन समाचारों
के कारण ही यह धारणा बना ली है कि, “ देश में कोई ईमानदार
आदमी ही नहीं रह गया है।
हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा
जा रहा है। जो जितने ऊँचे पद पर है, उसमें
उतने ही अधिक
दोष दिखाए जाते हैं।“
द्विवेदी जी ने लोगों को तिलक, गाँधी, विवेकानंद, स्वामी
रामतीर्थ,
रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमालवीय जैसे भारत के
महान बुद्धिजीवियों का स्मरण कराकर
उन्हें इस बात पर
विश्वास करने को कहा कि, भले ही वर्तमान में ऐसी
परिस्थितियाँ
बन गईं है कि ईमानदारी से मेहनत करके
जीविका चलाने वाले लोगों को कठिनतम परिस्थितियों का
सामना करना पड़ रहा है, जीवन के
प्रति महान मूल्यों के प्रति
उनकी आस्था हिलने लगी है, परंतु अब भी सेवा,
ईमानदारी
, सच्चाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य
गए हैं,
लेकिन नष्ट नहीं हुए हैं। आज भी ऐसे मनुष्य हैं जो
मनुष्य से प्रेम करता है,
महिलाओं का सामना करता है, झूठ
और चोरी को गलत समझता है, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने
को पाप
समझता है और कठिनाई में पड़े बेबस लोगों की सहायता करने
को अपना सौभाग्य
समझते हैं।
द्विवेदी जी ने अपनी इस बात को प्रमाणित करने के लिए अपने
साथ घटी
दो घटनाओं की चर्चा भी की। पहली घटना उनके
साथ तब घटी जब उन्होंने एक बार रेलवे
स्टेशन पर टिकट
काटते हुए दस की जगह सौ का नोट गलती से दे दिया था और
जल्दबाज़ी में
गाड़ी में आकर बैठ गए थे। परंतु थोड़ी ही देर में
वही टिकट काटने वाला व्यक्ति, रेल
के सैकेंड क्लास में हर
आदमी का चेहरा पहचानता हुआ द्विवेदी जी के पास आता है
और
उनके नब्बे रुपये वापस करता है। ऐसा करते समय उसके
चेहरे पर एक अनोखी शांति थी।
दूसरी घटना जो उनके कथन की पुष्टि करता है वह यह थी कि
एक बार द्विवेदी
जी सपरिवार बस में सफ़र कर रहे थे। परंतु
उनकी बस अपने गंतव्य पर पहुँचने के आठ
किलोमीटर पहले
ही खराब हो गई थी। चूँकि वह स्थान अत्यंत निर्जन था और
यात्रियों को
वहाँ डकैती का भी डर था,इसलिए उन्होंने बस के
ड्राइवर और कंडक्टर को इसका दोषी
बताया। उन यात्रियों का
कहना था कि ड्राइवर और कंडक्टर ने डाकुओं से मिलकर उन्हें
लूटने का षड्यंत्र बनाया है और अपने षड्यंत्र को अंजाम देने के
लिए ही कंडक्टर
को पहले भेज दिया था। यात्रियों की धारणा
तब गलत प्रमाणित हुई जब उन्होंने देखा
कि, कंडक्टर एक
खाली बस लिए आता है।
इन दो घटनाओं के बाद द्विवेदी जी स्वयं कहते हैं कि, “ कैसे
कहूँ
, मनुष्यता एकदम समाप्त हो गई ! कैसे कहूँ , कि लोगों
में दया-माया रह ही नहीं गई
!”
लेखक के विचार अत्यंत प्रभावशाली और सकारात्मक सोच से
परिपूर्ण है।
मेरा मानना है कि यदि मनुष्य की बनाई विधियाँ
गलत नतीजे तक पहुँच रही है तो हमें
उन्हें बदलना होगा।
महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है , और बनी
रहेगी।
भक्तिन
शब्दार्थ :
जिज्ञासु - उत्सुक
बरिस - वर्ष
रत्ती भर - ज़रा सा
स्पर्धा - मुकाबला
गोपालिका - चरवाहे या ग्वाले की स्त्री
दुर्वह - भारी
कपाल - भाल
कुंचित - सिकुड़ी
इतिवृत्त - जीवनी
विमाता - सौतेली माँ
किंवदन्ती - लोगों के प्रचलित विचार
अगाध - बहुत अधिक
मरणांतक रोग - लाइलाज बीमारी
नैहर - मायका
अनुग्रह - अहसान
शिथिल - कमज़ोर
चिर - हमेशा
विछोह - बिछड़ना
उपेक्षा - तिरस्कार
विधात्री - माता
मचिया - बैठने की चौकी
अभिषिक्त - स्थापित
काक-भुशंडी - पौराणिक कथाओं में वर्णित एक कौआ
घुघरी - गरीब लोगों के खाने का एक भोज्य पदार्थ
परिणति - परिणाम
अलगौझा - बँटवारा
उपार्जित - कमाई हुई
कुकरी - कुत्ता
बिलाई - बिल्ली
कटिबद्ध - तैयार , तत्पर
जिठौत - पति के बड़े भाई का बेटा
गठबंधन - विवाह
परिमार्जन - सुधार
इति - अंत
नितांत - बिल्कुल
वीतराग - उदासीन
छूत-पाक - अशुद्ध - शुद्ध
निषेध - मनाही
कलाबत्तू - एक प्रकार की मिठाई
लपसी - पतला हलवा
मंथरता - सुस्ती
पागुर करना - जुगाली करना
प्रश्न : ’ कभी कभी भाग्य के समक्ष पुरूषार्थ (कर्म) भी पराजित हो जाता है।’ ’ भक्तिन ’ कहानी के आधार पर सिद्ध कीजिए। अथवा ’ कर्मठ व्यक्ति भी भाग्य के हाथों छला जाता है ।’ ’ भक्तिन ’ कहानी के आधार पर सिद्ध कीजिए। अथवा ’ लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी ’ कथन के आधार पर भक्तिन के संघर्ष पर प्रकाश डालिए। उत्तर : ’ भक्तिन ’ महादेवी जी की प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है जो ’ स्मृति की रेखाएँ ’ में संकलित है। इसमें लेखिका ने अपनी सेविका भक्तिन के अतीत और वर्तमान का परिचय देते हुए उसके व्यक्तित्व का आकर्षक तथा हृदयग्राही चित्र खींचा है। महादेवी जी छायावाद युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मुख्य स्तंभ हैं। व्यापक शैक्षिक, साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने इन्हें सन् १९५६ (1956) में पद्मभूषण अलंकार से सम्मानित किया। १९८३ में ’ यामा ’ कृति पर इन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने भी इन्हें ’ भारत - भारती ’ पुरस्कार से सम्मानित किया। इन्होंने संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया है जो कभी- कभी पाठकों में अरुचि पैदा करती है। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं - अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, मेरा परिवार इत्यादि। वे स्वभावतः एक कवयित्री हैं, अतः संवेदनशीलता उनके स्वभाव का एक गुण है। उनकी अनेक बेजोड़ संस्मरणात्मक रेखाचित्रों में से ही एक रेखाचित्र भक्तिन का है जो उत्कृष्ट गुणों से युक्त होते हुए भी भाग्य के सामने हार जाती है। भक्तिन झूँसी गाँव की एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या थी जिसने कठिन परिश्रम के बाद भी आभाव का दर्द सहा था। उसका वास्तविक नाम ’ लछमिन ’ अर्थात् ’ लक्ष्मी ’ था। किन्तु " लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकीं।" यही कारण है कि जब वह महादेवी जी के पास काम के लिए आई थी तो ईमानदारी का परिचय देने के लिए अपनी सारी जानकारी के साथ अपना असली नाम भी बता दिया था, साथ ही यह अनुरोध भी किया कि वे कभी उसके नाम का उपयोग न करें। महादेवी जी ने उसके इस अनुरोध का सम्मान करते हुए उसे ’ भक्तिन ’ नाम दिया था। उन्होंने उसे यह नाम उसकी कंठीमाला देखकर दिया था। भक्तिन के जन्म के कुछ समय बाद से ही उसके दुर्भाग्य ने अपने पैर जमा लिए थे । जन्म के कुछ समय बाद ही माँ की मृत्यु हो गयी थी जिस कारण इनका लालन-पालन इनकी विमाता ने किया था। पिता की लाडली होने के कारण विमाता ने उसे पिता से दूर रखने के लिए पाँच वर्ष की उम्र में ही विवाह करा दिया था और नौ वर्ष की उम्र में ही गौना करा कर ससुराल भेज दिया था। ससुराल में छोटी वधू होने के कारण सारे घर के काम- काज का भार उसके नाज़ुक कंधों पर डाल दिया गया था। परंतु उतनी छोटी सी उम्र में भी भक्तिन ने अपनी मेहनत के बल पर उस कार्य को करने में कुशलता प्राप्त कर ली थी। लेखिका के शब्दों में उसके भाग्य की विडम्बना अपूर्व थी, " पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावतः ईष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणांतक रोग का समाचार तब भेज जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था।" भक्तिन के दुर्भाग्य ने उसका साथ उसके वैवाहिक जीवन में भी नहीं छोड़ा। तीन-तीन कन्याओं को जन्म देने के कारण उसे ससुरालवालों की उपेक्षा सहनी पड़ी। वह अपनी बेटियों के साथ घर का सारा काम करती थी, परंतु घरवाले उनके साथ खाने और कपड़ों में अन्य सदस्यों के साथ भेदभाव करते थे। लड़कों को दूध- मलाई, राब दी जाती और लड़कियों को ज्वार बाजरे की घुघरी। पति-पत्नी के कठिन परिश्रम से धरती सोना उगलने लगी, गाय-भैंस दूध की नदियाँ बहाने लगीं। भक्तिन की संपन्नता का साम्राज्य देखकर जेठ-जेठानियाँ जलने लगीं। पति ने बड़ी बेटी का विवाह कर दिया और छत्तीस वर्ष की आयु में भक्तिन को बेसहारा छोड़कर संसार से विदा ली। संपत्ति के लालच में जेठ- जेठानी उसका उसका दूसरा विवाह कराना चाहते थे परंतु स्वाभिमानी भक्तिन ने अपने केश कटवाकर, कंठीमाला धारण कर तथा गुरुमंत्र लेकर उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। दोनों छोटी लड़कियों का विवाह कर,अपने बड़े दामाद को घर जमाई बना लिया। दोनों माँ-बेटी खूब मेहनत करतीं। यह खुशी भी उसे अधिक समय तक नहीं मिल सकी क्योंकि " भक्तिन का दुर्भाग्य भी उससे कम हठी नहीं था। इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। " भक्तिन के उत्तराधिकारी दामाद की आकस्मिक मृत्यु से उसके ससुरालवालों को उसकी संपत्ति हड़पने का एक अच्छा मौका मिल गया था और वे अपने मक़सद में तब कामयाब हुए जब उन्होंने अपने आवारा साले के साथ भक्तिन की विधवा बेटी की ज़बरदस्ती शादी करा दी थी। परिणाम स्वरूप परिवार में क्लेश रहने लगा जिसके कारण घर की समृद्धि चली गई। फ़सल, पशु सब नष्ट हो गए थे। लगान देने के लिए भी पैसे नहीं रह गए थे। लगान अदा न करने पर ज़मींदार ने भक्तिन को दिन भर कड़ी धूप में खड़ा रखा।
स्वाभिमानी भक्तिन यह अपमान सह न सकी और गाँव छोड़कर
कमाई के लिए शहर चली गई। इस प्रकार स्पष्ट है कि भक्तिन एक कर्मठ स्त्री थी, पर वह भाग्य के हाथों छली गई। दुर्भाग्य ने उसका साथ कभी नहीं छोड़ा। भक्तिन को बचपन से ही माता का बिछोह , अल्पायु में विवाह, विमाता का दंश, पिता की मृत्यु , असमय पति की मृत्यु होना , बड़ी बेटी का विधवा होना तथा अयोग्य दामाद का ज़बरदस्ती गले मढ़ा जाना आदि जीवन के अनेक कष्ट सहने पड़े। परंतु इन सभी विषम परिस्थितियों में भी उसने अपना स्वाभिमान बनाए रखा तथा लेखिका पर भी अपने परिश्रम की अमिट छाप छोड़ी। सती " शिवानी" परिचय : * हिंदी साहित्य जगत में शिवानी एक ऐसी श्ख्सियत रहीं जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू तथा अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ रही है। * वे अपनी कृतियों में उत्तर भारत के कुमाऊं क्षेत्र के आसपास की लोक संस्कृति की झलक दिखलाने और किरदारों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई। * महज 12 वर्ष की उम्र में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर 21 मार्च 2003 को उनके निधन तक उनका लेखन निरंतर जारी रहा। * उनकी अधिकतर कहानियाँ और उपन्यास नारी प्रधान रहे। इसमें उन्होंने नायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बड़े दिलचस्प अंदाज़ में किया। * कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने का श्रेय शिवानी जी को ही जाता है। * उनकी कृतियों से यह झलकता है कि उन्होंने अपने समय के यथार्थ को बदलने की कोशिश नहीं की। * उन्होंने संस्कृत निष्ठ हिंदी का इस्तेमाल किया पर कहानी की विधा में ही रहने के कारण वह हिंदी के विचार जगत में एक नया पथ प्रदर्शन नहीं कर पाई। * प्रमुख रचनाएँ :- विष कन्या , करिए क्षमा , लाल हवेली , अपराधिनी , और चार दिन आदि हैं। * शिवानी जी ने कहानियों के अतिरिक्त उपन्यास और संस्मरण भी लिखे हैं। शब्दार्थ : नासिका - गर्जन - खर्राटे अवज्ञापूर्ण - तिरस्कारपूर्ण उपालम्भ - शिकायत उपादेयता - उपयोगिता अबीरी - लाल रंग लावण्य - सुन्दरता रीतापन - खालीपन विस्थापित - फिर से बसाए हुए गोष्ठी - सभा अग्रणी - सबसे आगे स्वल्पभाषिणी - कम बोलने वाली सिद्धकलम - लिखने की कला में निपुण वर्तुलाकार - गोल ज्वलंत - अत्यंत स्पष्ट वैधव्य - विधवा जीवन कदली-स्तंभ - केले के पेड़ का तना उद्धि - सागर घृत- पकवान - घी से बने पाकवान ढोबी पछाड़ - ज़बरदस्त मार कुकुरमुत्ता - मशरूम ( mushroom ) अर्द्धविक्षिप्त - आधा पागल
प्रश्न : किसी के
चरित्र को बाहरी रंग , रूप और बातों से नहीं आँका जा सकता है। ’ सती ’ कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : शिवानी द्वारा लिखी ’ सती ’ एक हास्य –
व्यंग्य प्रधान कहानी है। शिवानी की प्रतिभा बहुमुखी है। इन्होंने कहानियाँ ,
उपन्यास और संस्मरण लिखे हैं। इनकी कहानियों में अधिकतर पर्वतीय समाज से संबंधित
समस्याओं , प्रथाओं , तथा मनोभावों का चित्रण मिलता है। इनकी कहानियों में
भावात्मक और आर्थिक – सामाजिक समस्याओं से संघर्ष करती हुई नारी के रोचक और
मार्मिक चित्र हैं। इनकी घटना प्रधान कहानियों में कौतुहल तथा चमत्कार की भावना
मिलती है। इनकी कहानियों के नारी पात्र अधिकतर उच्चवर्गीय होते हैं। इनकी भाषा खड़ी
बोली हिन्दी है , जिसमें अँग्रेज़ी और देशी शब्दों का भी प्रयोग किया है। विष कन्या
, करिए छिमा , लाल हवेली , अपराधिनी , और चार दिन इनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह
हैं।
सुप्रसिद्ध लेखिका शिवानी द्वारा रचित कहानी ’
सती ’ एक व्यंग्यात्मक कहानी है। इसमें लेखिका ने महिला यात्रियों के व्यवहार को
दर्शाया है। पढ़ी-लिखी शिक्षित नारियाँ भी मूल रूप से सरल व सीधी होती हैं। अनजान
नारी की बातों में विश्वास कर लेती हैं और ठगी जाती हैं। इसी बात को उन्होंने अपनी
कहानी द्वारा स्पष्ट किया है।
प्रयाग के रेलवे स्टेशन पर चार महिलाओं की सीट
आरक्षित थीं , तीन महिलाएँ समय से पहले ही पहुँच जाती हैं। पहली महिला महाराष्ट्रियन थी जो एक मेजर जनरल की पत्नी थी
, दूसरी एक पंजाबी विधवा थी जो समाज सेवा का कार्य करती थी, तीसरी स्वयं लेखिका
थीं। चौथी महिला गाड़ी चलने के समय डिब्बे में प्रवेश कर सबका ध्यान अपनी ओर खींचती
है। “ हमारा घूरना उन्होंने भाँप लिया , केम बेन बहुत लम्बी हूँ
न मैं ?”
उसकी भाषा से स्पष्ट हो गया था कि वह एक गुजराती
महिला थी। वह छः फुट साढ़े दस इंच लम्बी , वाचाल स्त्री , पति के मृत शरीर को लेकर
सती होने की बात करती है। उसकी तीनो सहयात्री महिलाएँ उसके विषय में जानने के लिए
उत्सुक हो जाती हैं। वह अपना नाम मदालसा सिंघाड़िया बताती है जो प्रिटोरिया से आई
थी तथा उसके पति की मृत्यु एक पर्वतारोही दल के साथ बर्फ़ीले तूफ़ान के नीचे दबकर हो
गई थी। उसने अपने सहयात्रियों की उत्सुक्ता को उसकी चरम सीमा पर तब पहुँचा दिया ,
जब उसने अपने सती होने की बात उन्हें बताई। इस प्रकार वह तीनों महिलाओं को बातों
में फँसाकर उनकी सहानुभूति अर्जित कर अपने उद्देश्य में सफल हो जाती है। इससे यह
स्पष्ट हो जाता है कि मदालसा बहुत ही चालाक थी , वह नारी की कमज़ोरियों से
भलि-भाँति अवगत थी। यद्यपि मदालसा में वैधव्य का कोई चिह्न नहीं था , तथापि
तीनों पढ़ी-लिखी महिलाएँ उसकी बातों में आ जाती हैं। “ वे लम्बी होने पर भी पठानिन – सी – गठे कसे
शरीर की लावण्यमयी गतयोवना थी। उनके बाल किसी दामी सैलून में कटे-सँवरे लग रहे थे।
“
मदालसा एक अच्छी अभिनेत्री भी थी। उसने अपने पति
की स्मृति का ऐसा भावविभोर वर्णन किया कि तीनों महिलाओं का दिल पसीज गया। भारतीय
नारी दया और ममता की मूर्ति होती हैं, इस बात को मदालसा बखूबी जानती थी, यही कारण
है कि उसने सती की बात कर तीनों की सहानुभूति सहज पा ली थी।
मदालसा अपने कार्य को अंजाम तब देती है जब, वह
अपने ज़ाएकेदार भोजन का न्योता अपने सहयात्री महिलाओं को देती है। वे सभी उसके भोजन
को खाकर गहरी नींद में सो जाते हैं क्योंकि उसमें नशीला पदार्थ मिला हुआ था।
मदालसा उनका सारा सामान लेकर चंपत हो जाती है।
अतः सती
कहानी में चित्रित सहयात्रियों के चरित्र के माध्यम से हम इस सत्य से परिचित होते
हैं कि किस तरह पढ़ी-लिखी उच्चवर्गीय महिलाएँ अपने अहंभाव में बहकर दूसरों से दूरी
बनाए रखती हैं परंतु शीघ्र ही अपने स्त्रियोचित व्यवहार का परिचय देते हुए बतरस
में डूब जाती हैं , और एक अनजानी महिला की बातों पर विश्वास कर ठगी जाती हैं। मदालसा
का चरित्र यह प्रमाणित करता है कि , किसी का भी बाहरी रूप रंग तथा बात करने का ढंग
उसके चरित्र को स्पष्ट नहीं करता है।
मजबूरी
![]()
-- मन्नू भंडारी
लेखिका परिचय :
v मध्य प्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा गाँव में जन्मी मन्नू का बचपन का नाम
महेंद्र कुमारी था।
v लेखन के लिए
उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया।
v उन्होंने एम. ए.
तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली के मीरांडा हाउस में अध्यापिका रहीं।
v धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास आपका बंटी से
लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं।
v लेखन का संस्कार
उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।
v प्रमुख रचनाएँ :
-
कहानी-संग्रह :- एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों
की एक तस्वीर, यही सच है, त्रिशंकु, श्रेष्ठ कहानियाँ, आँखों देखा झूठ, नायक खलनायक विदूषक।
उपन्यास :- आपका बंटी, महाभोज, स्वामी, एक इंच मुस्कान और कलवा, एक कहानी यह भी।
पटकथाएँ :- रजनी, निर्मला, स्वामी, दर्पण। नाटक :- बिना दीवारों का घर।
शब्द अर्थ
गठिया – जोड़ों का
दर्द
खड़िया – एक
प्रकार की मिट्टी
अनायास – बिना
प्रयास के
औषधालय – दवाखाना
उपेक्षित – जिसकी
तरफ़ ध्यान न दिया जाए
साध – इच्छा
परिहास – मज़ाक
नोन राई करना –
नज़र उतारना
शिथिल – सुस्त
जिज्ञासु – जानने
का इच्छुक
याददाश्त – स्मरण
शक्ति
प्रयाण करना –
जाना, प्रस्थान करना
संशय – शक
चिरायु – लंबी
आयु / उम्र
बौरा गया – पगला
गया
सामंजस्य –
तालमेल / समानता
कौर – निवाला
अदब – तमीज़
पैरों तले ज़मीन
सरकना – घबरा जाना
थाती – अमानत
मनौती – मन्नत
प्रश्न : ’
मजबूरी ’ कहानी वास्तव में दो पीढ़ियों के अन्तराल की मार्मिक कहानी है। उदाहरण
देकर स्पष्ट कीजिए तथा कहानी के शीर्षक के औचित्य पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : ' मजबूरी
’ कहानी की लेखिका मन्नू भंडारी जी हैं। लेखन का संस्कार इन्हें विरासत में मिला
था। इन्होंने अनेक कहानियाँ , उपन्यास एवं नाटक लिखकर अपनी बहुमुखी प्रतिभा का
परिचय दिया। इनकी चर्चित कहानियों और उपन्यासों पर फ़िल्म भी बनी है। इनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है। उनके
विषय मुख्यतः मध्यवर्ग की समस्याओं को लेकर होते हैं। इनकी कुछ अन्य रचनाएँ - यही
सच है , त्रिशंकु , आँखों देखा झूठ इत्यादि
हैं।
स्वतंत्र भारत
में शिक्षा के विकास का स्तर निरंतर बढ़ता जा रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में जिस
प्रकार की शिक्षा दी जाती है, वह महानगरों की शिक्षा प्रणाली से बिलकुल अलग है। आज
महानगरों के माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के लिए कुछ अधिक चिंतित होते हैं।
यही कारण है कि जब अम्मा ने बेटू की परवरिश बिलकुल अपने बेटे रामेश्वर की तरह करनी
चाही तो रमा असंतुष्ट हो गयी और अपने बेटे के उज्ज्वल भविष्य के लिए अम्मा को दुख
देकर उसे वापस अपने साथ मुंबई ले आई।
कहानी में यह
दर्शाया गया है कि किस प्रकार परिस्थिति से विवश होकर रमा अपने बड़े बेटे बेटू को उसकी दादी के पास छोड़ जाती है। एक वर्ष बाद जब दोबारा रमा गाँव आती है तो
बेटू का स्वभाव देखकर चिंतित और निराश हो जाती है।
“ जिस बेटू को वह
छोड़ गई थी , और जिसे अब वह देख रही है , दोनों में कोई सामंजस्य नहीं था। बात-बात
में उसकी ज़िद् देखकर रमा का खून खौल जाता है।''
रमा अपने बेटू का भविष्य सँवारने के लिए उसे अपने साथ
मुंबई ले जाना चाहती थी परंतु एक वर्ष के पप्पू के साथ यह अभी संभव नहीं हो पा रहा
था। इसीलिए न चाहते हुए भी मजबूरन उसे बेटू को अम्मा के पास छोड़कर वापस आ जाना
पड़ा। रमा ने पत्र के माध्यम से अम्मा जी को बेटू को स्कूल भेजने की सलाह दी ,
परंतु अम्मा जी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया। दो साल बाद जब रमा पुनः बेटू को
देखने गई तो उसने पाया कि बेटू के स्वभाव में कोई परिवर्तन न हुआ था और अम्मा जी
का रवैया भी नहीं बदला था। अतः अम्मा जी का दिल दुखाकर, उन्हें बेटू के उज्ज्वल
भविष्य का वास्ता देकर रमा बेटू को अपने साथ अपने मायके ले आई। रमा अपने मक़सद में
कामयाब न हो सकी क्योंकि बेटू अपनी दादी से इतना घुला था कि उनसे दूर जाते ही उसकी
तबीयत इतनी बिगड़ गयी कि पुनः उसे उसकी दादी के पास छोड़ देना पड़ा।
परंतु रमा ने हार
नहीं मानी और दोबारा अपने बेटू के उज्ज्वल भविष्य के लिए बड़ी समझदारी से उसे पहले
अपने थोड़ा करीब कर लिया फिर उसे सीधा मुंबई ले आई। अन्य बच्चों के साथ घुल मिल जाने
के कारण इस बार रमा अपने मक़सद में कामयाब हो गई।
इससे यह स्पष्ट
होता है कि दो पीढ़ियों के अंतराल का दर्द कहानी में कहानीकर ने बखूबी उभारा है।
अम्मा और रमा दोनों का बेटू के प्रति अगाध प्रेम था, परंतु दोनों की सोच में उनके
समय के अंतराल के कारण ज़मीन-आसमान का अंतर था।
संपूर्ण कहानी
में लेखिका जी ने अम्मा जी के माध्यम से एक पारिवारिक समस्या और उससे उत्पन्न होने
वाली परिस्थितियों पर प्रकाश डाला है। इस कहानी के प्रत्येक पात्र के साथ कोई न
कोई मजबूरी थी। अम्मा जी का एकाकी जीवन बिताना, उनकी मजबूरी थी। रमा का बेटू को
पहले अम्मा जी के पास छोड़ना और बाद में पुनः अपने साथ ले जाना भी उसकी मजबूरी थी।
रामेश्वर का बुढ़ापे में अपने माता-पिता के पास न रहना भी एक मजबूरी ही थी।
अतः प्रस्तुत
कहानी में समय की गति की प्रधानता को बताया गया है कि समय बड़ा बलवान होता है उसके
आगे सभी को झुकना पड़ता है। इस प्रकार कहानी का शीर्षक एकदम उपयुक्त है।
दासी -- जयशंकर प्रसाद लेखक परिचय
* आधुनिक हिंदी साहित्य
में चर्चित नाम। छायावाद के एक
प्रमुख स्तंभ।
* आरंभ में ब्रजभाषा में रचना, फिर खड़ी बोली की
ओर
आकर्षित। घर पर ही संस्कृत, पाली, उर्दू, प्राकृत और अंग्रेज़ी भाषा तथा साहित्य का ज्ञान।
* बहुमुखी प्रतिभा के
धनी। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक
आदि की रचना।
* रचनाओं में भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीयता
का स्वर।
सांस्कृतिक चेतना व मानव-मूल्यों के हिमायती।
* प्रकृति चित्रण के धनी। नारी के उदात्त और
आदर्श रूप का
अनोखा चित्रण। श्रृंगार (संयोग और वियोग) वर्णन के अद्भुत उदाहरण।
* कामायनी पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक
मिला।
* अल्पायु में ही मृत्यु (1889 – 1937)
* प्रमुख रचनाएँ :
काव्यग्रंथ – आँसू, झरना, प्रेमपथिक, लहर आदि।
नाटक – अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी
आदि।
उपन्यास – कंकाल, तितली, इरावती (अधूरा)।
कहानी-संग्रह – आँधी, इंद्रजाल, प्रतिध्वनि, छाया,
आकाशदीप।
शब्द अर्थ
पुष्ट –
मज़बूत
दंभ – घमंड
कलह – झगड़ा
प्रतिकूल
- विरोध में
आनंदातिरेक
- अत्यधिक खुशी
उन्मत्त - पागल, नशे में धुत्त
विस्मृत
- भूला हुआ
चिर निर्वासित – लंबे समय के लिए निकाला हुआ
शुभ्र
- सफ़ेद
पंकिल
- कीचड़ से सनी हुई, मैली
प्राचीर – चहारदीवारी
गर्भगृह – मंदिर के अंदर का स्थान
अगरु – एक सुगंधित पदार्थ
प्रणत – झुका हुआ
कौशेय वसन – रेशमी वस्त्र
आलिंगन – गले लगाना
वाग्दत्ता
- जिसकी सगाई हो गई हो
वह्नि वेदी - अग्निवेदी
आततायी
- कातिल, अत्याचारी
चतुष्पथ
- चौराहा
अनाहार
- बिना खाए-पीए
विवर्ण
- पीला, फ़ीका
तोरण -
फाटक
वणिक् -
बनिया, दुकानदार
प्रत्यावर्तन
- लौटना
रूप माधुरी
- सुंदरता, सौंदर्य की मधुरता
प्रमाद – उन्माद, मद, नशा
निष्प्रभ
- चमकहीन
प्रश्न – ‘दासी’ कहानी का
आलोचनात्मक अध्ययन कीजिए तथा उसके उद्देश्य की पुष्टि कीजिए।
उत्तर – जयशंकर प्रसाद
लिखित ‘दासी’ एक श्रेष्ठ कहानी है। कहानी रूमानी (romantic) ऐतिहासिक कल्पना
से परिपूर्ण है, जिसमें लेखक का कवि और नाटककार का रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
कहानी का कथानक रोचक व जिज्ञासापूर्ण है। भाषा प्रवाहमयी, काव्यात्मक तथा
प्रभावोत्पादक है। वह संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावली तथा उर्दू-फारसी के प्रभाव से
युक्त है। लेखक ने चित्रात्मक शैली का प्रयोग किया है। प्रकृति-चित्रण अति रमणीय
है, वर्णन आकर्षक है। लेखक ने मानव-मन की चिरस्थायी प्रवृत्तियों को उभारा है।
लेखक ने प्रस्तुत कहानी
में नारी जाति की प्रतिष्ठा और गौरव को अति महानता से दर्शाया है। फ़िरोज़ा और
इरावती दोनों ही दासी होते हुए भी अपने नारीत्व का परिचय बड़े प्रभावशाली ढंग से
देती हैं।
इरावती बलराज से प्रेम
करती है परंतु जब बलराज उसके प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन करता है, तब वह उसे
नहीं स्वीकारती तथा अपने को उसके अयोग्य ठहराती है क्योंकि वह अब एक बिकी हुई दासी
है, और बिकते समय उसने अपने स्वामी की सभी शर्तों को स्वीकार किया था। परंतु उसकी
आत्मा श्रेष्ठ है। वह नारी की महानता से परिचित है और वह बलराज के प्यार को अस्वीकार
कर उसका परिचय देती है -
“मैं तो मर चुकी हूँ। मेरा
शरीर पाँच सौ दिरम पर जीकर जब तक सहेगा, खटेगा। वे चाहें तो मुझे कौड़ी के मोल भी
किसी दूसरे के हाथ बेच सकते हैं। समझे ! सिर पर तृण रखकर मैंने स्वयं अपने को
बेचने में स्वीकृति दी है। उस सत्य को कैसे तोड़ दूँ ?”
इसी तरह फ़िरोज़ा भी दासी
होते हुए अहमद से इसलिए अलग हो जाती है क्योंकि वह हिंदू जाटों और मुसलमानों के
बीच युद्ध नहीं चाहती। किंतु अहमद ने उसका कहना नहीं माना, उसने युद्ध किया और
वह मारा गया।
इस तरह फ़िरोज़ा के प्रेम
की समाधि बन जाती है और वह इस प्रेम की समाधि पर दीप जलाती है और आजीवन दासी बनी
रहती है।
इसके अलावा कहानीकार ने
यह भी दर्शाया है कि देशभक्ति एक हठ व स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो पद या धन की
सीमाओं में सिमट कर नहीं बँध सकती। उसका आवेग सारी सीमाओं को लाँघकर देश से जुड़
जाता है और इसी भावावेश में बलराज और तिलक दोनों अपने देश पर प्राण न्यौछावर करने
के लिए तैयार रहते हैं। बलराज और तिलक, जो कि हिंदू हैं, परिस्थितिवश मुस्लिम सेना
में भर्ती हो जाते हैं। तुर्की सेना में तिलक एक सेनापति था, यह एक ऐतिहासिक सत्य
है। तिलक और बलराज दोनों ही ऊँचे-ऊँचे ओहदों पर पहुँच जाते हैं, फिर भी हिंदुस्तान
के लिए वे अपने प्राण देने को तैयार हैं। वे अपने देश पर गर्व करते हैं। तिलक का
अपनी बहन इरावती के प्रति प्रेम भी सराहनीय है –“इरावती, मेरी बहन
! आह, मैं उसे क्या मुँह दिखलाऊँगा। वह कितने कष्ट में जीती होगी ! और मर गई हो तो
.... ”
कहानी के तथ्यों के आधार पर कहानी के
सभी अंग पुष्ट हैं। देश, काल और कथोपकथन का उचित निर्वाह होने के कारण कहानी के
उद्देश्य की पुष्टि होती है। अत: हम कह सकते हैं कि कहानी ‘दासी’ एक सशक्त कहानी है।
|
No comments:
Post a Comment