काव्य



2. एक फूल की चाह               


' सियारामशरण गुप्त ’

  १. मुख्यतः आधुनिक काल के कवि हैं।    

 २. मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई हैं। 

 ३. इनकी रचनाओं में सत्य, अहिंसा,करूणा जैसे भाव पाए जाते हैं।

 ४. रचनाएँ :- आर्द्रा , मौर्य विजय ,नकुल।

  ५. १९६२ - सरस्वती हीरक जयन्ती   
    पुरस्कार १९४१ - सुधाकर  पुरस्कार ।     



एक फूल की चाह छुआछूत की समस्या से संबंधित कविता है महामारी

  के दौरान एक अछूत बालिका उसकी चपेट में जाती है वह अपने

  जीवन की अंतिम साँसे ले रही है वह अपने माता- पिता से कहती है कि वे

  उसे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दें पिता असमंजस में है कि वह  

मंदिर में कैसे जाए मंदिर  के पुजारी उसे अछूत समझते हैं और मंदिर में  

प्रवेश के योग्य नहीं समझते फिर भी बच्ची का पिता अपनी बच्ची की  

अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर में जाता है वह दीप और पुष्प अर्पित  
करता है और फूल लेकर लौटने लगता है बच्ची के पास जने की जल्दी में  

वह पुजारी से प्रसाद लेना भूल जाता है इससे लोग उसे पहचान जाते हैं वे  

उस पर आरोप लगाते हैं कि उसने वर्षों से बनाई हुई मंदिर की पवित्रता नष्ट  
कर दी वह कहता है कि उनकी देवी की महिमा के सामने उनका कलुष कुछ  
भी नहीं है परंतु मंदिर के पुजारी तथा अन्य लोग उसे थप्पड़-मुक्कों से  

पीट-पीटकर बाहर कर देते हैं इसी मार-पीट में देवीक का फूल भी उसके  

हाथों से छूत जाता है भक्तजन उसे न्यायालय ले जाते हैं न्यायालय उसे  

सात दिन की सज़ा सुनाता है सात दिन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे  
अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख मिलती है


इस प्रकार वह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणासन्न बेटी की   

अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाता। इस मार्मिक प्रसंग को उठाकर कवि  

पाठकों को यह कहना चाहता है कि छुआछूत की कुप्रथा मानव-जाति पर  

कलंक है। यह मानवता के प्रति अपराध है



  
शब्दार्थ :

ताप-तप्त                         बुखार से गरम

कंठ                                गला

शिथिल                           कमज़ोर

प्रभात सजग                   लचल से भरी सुबह

अवयव                           शरीर के अंग

क्षीण                               कमज़ोर

अलस दुपहरी               आलस्य से भरी दुपहरी

ग्रसने                             जकड़ने, निगलने

तिमिर                           अंधकार

सुस्थिर                          एक जगह स्थिर होकर

विस्तीर्ण                         फैला हु

सरसिज                         कमल

विहँसित                        खिले थे

स्वर्ण कलश                   मंदिर के शिखर पर कलश के आकर 
                                      का कंगूरा

रवि-कर-जाल                उगते हुए सूर्य की किरणों का प्रकाश

समुदित                         प्रसन्नता के सा

आच्छादित                     छाया हु

भक्त वृंद                        भक्तों का समू

अंबा                               देवी माँ

मुद-मय                         आनंद के सा

ढिकला                         धक्का दिया गया

सिंहपौर                        मंदिर का मुख्य द्‍वार

परिधान                         वस्त्र

कलुषित                        अपवित्र

चिरकालिक                   बहुत पुरानी

शुचिता                           पवित्रता

प्रश्‍न : ' एक फूल की चाह ’ शीर्षक कविता में व्याप्त एक भीषण 

समस्या को अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से उजागर किया है। - स्पष्ट कीजिए।

त्‍तर : ' एक फूल की चाह ’ शीर्षक कविता के कवि सियारामशरण 

गुप्त जी, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के छोटे भाथे। सरल शब्दों 

में गंभीर भाव व्यक्त करने में वे प्रवीहैं। इनपर महात्मा गांधी और

विनोभा भावे का बहुत प्रभाव पड़ा। इनकी रचनाओं में सत्य, अहिंसा

करुणा, विश्‍वबंधुत्व तथा गांधीवादी विचारधारा की छाप स्पष्ट है।

अपनी कविताओं में इन्होंने समाज में व्याप्त बुराइयों तथा रूढ़ियों

पर करारी चोट की है।   

 ' एक फूल की चाह ’ शीर्षक कविता के माध्यम से कवि ने 

समाज में व्याप्त अस्पृश्‍यता की भीषण समस्या को एक निम्‍न जाति 

के साथ समाज द्‍वारा किए गए अत्याचार के माध्यम से अत्यंत 

मर्मस्पर्शी ढंग से उजागर किया है। कविता में गुप्त जी ने समाज में

अछूत माने जाने वाले एक व्यक्ति की व्यथा का चित्रण किया है जो

अपनी बीमार लड़की की इच्छानुसार, देवी के मंदिर में एक फू

लाने पहुँच जाता है। परंतु वह सामाजिक कुरीतियों के चपेट में आ 

जाता है और अपनी बेटी की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं कर पाता है।

सुखिया जब महामारी के चपेट में आ जाती है , उसका शरीर बुखार से

गरम रहता है, उसके शरीर के सारे अंग शिथिल हो जाते हैं, अपनी

इस स्थिति से घबराकर वह अपने पिता से अंबा के प्रसाद का एक 

फूल माँगती है। पिता भी उसकी चिंता में डूबा रहता था।  बेटी की

अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पिता, पर्वत की चोटी पर स्थित अंबा

माँ के विशाल मंदिर में पहुँच गया। मंदिर में उत्सव जैसा माहौल था 

था धूप-दीप उसकी शोभा को बड़ा रहे थे। पुजारी से जब प्रसाद 

मिला तो पिता खुशी के मारे प्रसाद लेना भूलकर केवल देवी माँ की

पूजा के फूल ही लेकर वहाँ से निकल पड़ा। उसकी इस भूल की वजह

से लोगों का ध्यान उसकी ओर गया और उन्हें एक इंसान या मजबू

पिता नहीं , केवल एक निम्‍न जाति का अछूत दिखा। लोगों ने सुखिया

के पिता पर यह इल्ज़ाम लगाया कि उसने मंदिर में प्रवेश करके बहुत

ही अनुचित कार्य किया है तथा मंदिर की प्राचीन-काल से चली आ रही

पवित्रता को दूषित तथा अपवित्र कर दिया है। 

 " पापी ने मंदिर में घुसकर 
    
   किया अनर्थ बड़ा भारी,

  कलुषित कर दी  है मंदिर की,

  चिरकालिक शुचिता सारी।"

सुखिया का पिता उन भक्तों से पूछता है कि वे कैसे भक्त हैं , जो 

अपनी देवी माँ की महानता को उसकी जाति से छोटा बता रहे हैं।

परंतु भक्तों ने उसकी एक न सुनी और उसे घेरकर पड़ लिया,

उस पर मुक्कों, घूँसों का प्रहार करना प्रारंभ कर दिया तथा उसे 

नीचे गिरा दिया। नीचे गिरने पर उसके हाथों का सारा प्रसाद भी

नीचे बिखर गया। इतने में ही उसे यदि माफ़ कर दिया जाता तो 

शायद वह अपनी बेटी को अंतिम बार देख पाता। भक्त जनों ने उसे

इस अपराध के लिय न्यायालय भेज दिया, जहाँ उसे सात दिन की

ज़ा सुनाई गई। सात दिनों बाद जब वह घर लौटा तो उसे ,उसकी 

बेटी की राख ही मिली

" अंतिम बार गोद में बेटी ;

  तुझको ले न सका मैं हा

 एक फूल माँ के प्रसाद का

 तुझको दे न सका मैं हा ! "

प्रस्तुत कविता के माध्यम से गुप्त जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत 

जैसी कुरीति की ओर हमारा ध्यान कृष्ट है।  इस मार्मिक प्रसंग 


को ठाकर कवि पाठकों को यह कहना चाहता है कि छुआ- छू

की कुप्रथा  मानव - जाति पर कलंक है। यह मानवता के प्रति 

अपराध है। 

बाल लीला              
सूरदास
                                                 
परिचय:
·       कृष्ण भक्ति शाखा के प्रेमाश्रयी कवियों के मूर्धन्य कवि हैं
·      इनके गुरू श्री वल्लभाचार्य जी हैं।
·      लोगों की मान्यता है कि ये जन्मांध थे, पर इस संबंध में भी विवाद है।
·      इनकी रचना की भाषा ब्रज की लोक प्रचलित ब्रजभाषा है, जिसमें अलंकार का प्रयोग किया गया है, इसमें मधुरता और सरलता का भी मिश्रण मिलता है।
·      वात्सल्य रस में इनके समान दूसरा कोई नहीं है, इन्होंने अपनी बंद आँखों से कृष्ण की विविध बाल लीलाओं का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है।
·      इनकी रचना में श्रृंगार रस के संयोग और वियोग  दोनों पक्षों का मार्मिक एवं सजीव वर्णन मिलता है।
·      इनके पदों में गेयता और संगीतात्मकता पाई जाती है।
·      प्रमुख रचनाएँ :- सूरसागर, सूर सरावली, साहित्य लहरी आदि। 
शब्दार्थ :
शोभित        सुन्दर
नवनीत        मक्खन
घुटुरुन        घुटनों के बल चलना
रेनु           धूल
मंडित         सना
दधि           दहि
चारु           सुन्दर
कपोल         गाल
लोल          लाल
लोचन        आँखें
गोरोचन      एक प्रकार का पीला चंदन
लट          बालों का गुच्छा
मनु          मानो
मत्त         मस्त
मधुप        भौंरा
गन         समुह
मधु         रस
कठुला       बच्चों को पहनाई जाने वाली
            माला।
केहरि        सिंह
नख         नाखून
राजत       सुशोभित हो रहा है
रुचिर       सुन्दर
हिए        मन
एको पल    एक क्षण 
सत        सौ
कल्प       युग
महर       पिता
सौं        से
अरु       और
हलधर    बलराम
जनि      मत
जाहु      जाना
काहु      किसी
कौतुहल   आश्‍चर्य, उत्साह
बधैया     बधाई
दरस      दर्शन
चरननि     चरणों की
बलि जैया   बलिहारी जाना
मोहि        मुझे
दाऊ         भैया
खिजायौ      चिढ़ाते हैं
मौं सो       मुझसे
मोल        खरीदकर
लीन्हों       लाए हैं
तू          तू
जायो       जन्म दिया
पुनि       बार
तात      पिता
कत      क्यों
स्याम    काला
सरीर     शरीर
चुटकी दै-दै  चुटकी बजा-बजा कर
बलबीर      बलराम
कबहूँ       कभी
खीझै       डाँटती
रिस       शिकायत
रिझै       मुस्कुराती
चबाई      चुगलख़ोर
जनमत     जन्म से ही 
धूत        धूर्त                
गोधन      गऊ माता की
सौं         शपथ
पूत        बेटा

प्रश्‍न : ’ पठित महाकवि सूरदास के तीन पदों में बालकृष्ण की तीन अवस्थाओं एवं उनकी चेष्टाओं का अत्यंत मनोहारी चित्रण हुआ है ’ – इस कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
उत्तर :- प्रेमाश्रयी मार्ग के कृष्णभक्ति शाखा के मूर्धन्य कवि सूरदास जी ने अपनी संपूर्ण रचनाओं में अपने आराध्य देव श्री कृष्ण जी को समर्पित किया है। इनकी रचना की भाषा ब्रजभाषा है। इन्होंने वात्सल्य रस के अतिरिक्त श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन किया है। इनके गुरू श्री वल्लभाचार्य जी हैं। इनकी प्रमुख रचनाएँ सूरसागर, सूर सरावली और साहित्य लहरी आदि हैं।
सूरदास जी ने अपने पहले पद में बालकृष्ण के घुटनों के बल चलने का चित्रण किया है। वे कहते हैं कि बालकृष्ण के हाथ में मक्खन है, वे मक्खन लिए बहुत ही सुन्दर लग रहे हैं। वे घुटनों के बल चल रहे हैं, उनका पूरा शरीर धूल से सना है, मुँह पर दहि इस तरह लगी है मानों चेहरे पर कोई लेप लगा हो। कृष्ण जी के गाल बड़े प्यारे लग रहे हैं और उनकी आँखें बड़ी चंचल हैं। उन्होंने माथे पर गोरोचन तिलक लगाया हुआ है। उनके चेहरे पर उनकी काली-काली लटें लटक रही हैं, जिसे देखकर सूरदास जी को ऐसा प्रतीत होता है मानों कृष्ण के फूल के समान रस से भरे चेहरे से काले-काले भँवरों का समुह रस पीने के लिए उस पर झुके हैं। बालकृष्ण की गले में माला पहनाई गई है जिसमें शेर के नाख़ून लगा दिया गया है, ताकि उन्हें किसी की बुरी नज़र न लगे। सूरदास जी कहते हैं कि बालकृष्ण की इस मोहिनी रूप के एक पल के दर्शन से ही सैकड़ों युगों के सुख की प्राप्ति हो जाती है।
सूरदास जी ने अपने दूसरे पद में बालकृष्ण द्‍वारा यशोदा माँ को पहली बार ’ मैया-मैया ’ कह कर पुकारने का चित्रण किया गया है। सूरदास जी कहते हैं कि अब श्री कृष्ण जी थोड़े और बड़े हो गए हैं, वे बोलना सीख रहे हैं। वे मैया-मैया कहकर पुकारने लगे हैं। वे नंद बाबा को     ’ बाबा ’ और बलराम को ’ भैया ’ कहकर पुकारते हैं। यशोदा कन्हैया का नाम लेकर उसे बहुत दूर खेलने जाने से मना करती है, वे उसका नाम लेकर इसलिए पुकारती हैं, ताकि कृष्ण अपने नाम से परिचित हो। वह कहती है कि हे लाल ! तुम दूर खेलने मत जाना, क्योंकि ऐसा करने से किसी की गैया तुम्हें चोट पहुँचा सकती है। गोपियाँ तथा ग्वाल बाल सभी बालकृष्ण और यशोदा माँ के इस संवाद को सुन आश्‍चर्य चकित और उत्साहित हो रहे थे अर्थात्‍ इस दृश्‍य का आनंद ले रहे थे। संपूर्ण वृंदावन में कृष्ण के बड़े होने की उसके बोलने की बधाई दी जा रही थी। सूरदास जी भी कृष्ण के इस बाल-रूप पर बलिहारी जाते हैं।
सूरदास जी ने अपने तीसरे पद में बालकृष्ण को बलराम द्‍वारा चिढ़ाए जाने की शिकायत का चित्रण किया है। प्रस्तुत पद में बालकृष्ण अपनी माता यशोदा से अपने बड़े भाई बलराम की शिकायत करते हैं कि बलराम भैइया उन्हें सभी ग्वाल-बाल के साथ मिलकर बहुत चिढ़ाते हैं। वे उनसे कहते हैं कि, वे यशोदा मैया और नंद बाबा के अपने पुत्र नहीं है बल्कि उन्हें तो खरीदा गया है। यशोदा मैया ने उन्हें नहीं जन्मा है। बालकृष्ण जी कहते हैं कि बलराम भैइया उन्हें चिढ़ाते हुए बार-बार पूछते हैं कि, उनके असली माता-पिता कौन हैं क्योंकि यशोदा माँ और नंद बाबा तो गोरे हैं जबकि वे काले हैं। भैइया की ऐसी बातें सुनकर बाकि सभी ग्वाल-बाल भी उनका मज़ाक उड़ाते हैं, वे सभी चुटकी बजा-बजा कर उन पर हँसते हैं। इन्हीं वजह से वे बाहर खेलने भी नहीं जाते हैं। बालकृष्ण जी यशोदा माँ से भी रूठे हैं क्योंकि वे भी बलराम भैइया को नहीं डाँटती हैं केवल उन्हें ही मारना जानती हैं। कृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर यशोदा माँ मन ही मन मुसकुराती हैं और अपने कृष्ण को मनाती हुई कहती हैं कि, बलराम तो जन्म से ही धूर्त है, उसकी तो आदत ही है झूठ बोलने और सबको तंग करने की। वह गऊओं की सौगंध खाकर कहती हैं कि, वे ही उनकी माता हैं और वे ही उनके पुत्र। इस तरह यशोदा माँ कृष्ण को विश्‍वास दिलाया कि बलराम जो कुछ कहता है, वह सच नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास जी ने अपने पदों के माध्यम से बालकृष्ण की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है- पहला जब वे घुटनों के बल चलते हैं, दूसरा जब वे थोड़ा-थोड़ा बोलना सीखते हैं और तीसरा जब वे इतने बड़े हो जाते हैं कि अपना अपमान समझ सकते हैं तथा अपनी माँ और भैइया से रूठ जाते हैं।  


2.   साखी       


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परिचय :
  • जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म सन् १३९८ में वाराणसी में हुऔर इनकी मृत्यु सन् १४९५ में मगहर में हुई।
  • ीरऔर नीमा नामक जुलाहा दम्पति ने इनका लालन-पालन किया।
  • ढ़े - लिखे न होने के बावजूद इनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशालथा, ये कवि , भक्त , महात्मा और समाज सुधारक थे।
  • इनका धार्मिक दॄष्टिकोण संकीर्णता , कट्‍टरता और बाह्‍या आडंबरों से परे उदारता , सहिष्णुता और मानव - प्रेम पर धारित था।
  • वे ईश्‍वर के निर्गुण रूप में विश्‍वास करते थे।
  • इन्होंने हृदय की पवित्रता और सत्य के द्‍वारा ईश्‍वर प्राप्ति का उपदेश दिया।
  • एक बड़े क्रांतिकारऔर समाज-सुधारक थे।
  • अपने घुमक्कड़ स्वभाव के कारण इनकी भाषा में ब्रज , अवी , भोजपुरी , राजस्थानऔर पंजाबी के शब्द घुल मिल गए हैं इस कारण इनकी भाषा को सधुक्कऔर पंचमेल खिी भी कहा जाता है।
  • कबीर की रचनाँ  ' बीजक ’ नाक ग्रंथ में संकलित हैं जिसके तीन भाग हैं - साखी , सबद और रमैनी ।       
शब्दार्थ :-

पीछे - पहले
लागा जाई - सहारा लिया
लोक वेद - लोगों के अनुभवों से प्राप्त ज्ञान
आगे - आगे  चलकर
थें - उन्हें
दीपक - ज्ञान का दिया
बरष्या - बरसा
अंतरि - अंदर का
हरी भई - हरी - भरी हो गई 
बनराई - संपूर्ण वन 
बासुरि - दिन
रैणि  -  रात 
सुपिनै - सपने
माहिं - में
बिछुट्‍या - बिछुड़ा
मूंवा पीछे - मरने के बाद
जिनि - मत
पाथर - पत्थर
घाटा - हानि
लौह - लोहा
पारस - एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्‍ध है कि यदि लोहा उससे छुआया जाए तो सोना हो जाता है।
अंखड़ियाँ झाईं - आँखों में जाला
निहारि - देख
जीभड़ियाँ - जीभ में
रिसाइ - नाराज़ हो जाएँगे
बिसूरणां - चिंता करना
ज्यों घुण काठहि खाई - जिस प्रकार दीमक लकड़ी को खा जाते हैं।
परवति - पर्वत
फिर्‌या - घूमता रहा
गँवाये - खो दिया
बूटि - संजीवनी जड़ी बूटी
देखण - देखन
नजरि - दृष्टि
अनूप - ब्रह्‍म
मैं - अहंकार
हरि - भगवान
अँधियारा - अज्ञानता
विरला - कोई कोई ही
जोगी - योगी
सहजै - आसानी से 

                   
               

                                         

नदी के द्‌वीप  

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ’ अज्ञेय ’

 

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व्यक्ति अज्ञेय की चिंतन-धरा का महत्तपूर्ण अंग रहा है, और ‘नदी के द्वीप’

 उपन्यास में उन्होंने व्यक्ति के विकसित आत्म को निरुपित करने की 

सफल कोशिश की है-वह व्यक्ति, जो विराट समाज का अंग होते हुए भी 

उसी समाज की तीव्रगामी धाराओं, भंवरों और तरंगो के बीच अपने भीतर 

एक द्वीप की तरह लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता रहता है ! 

वेदना जिसे मांजती है, पीड़ा जिसे व्यस्क बनाती है, और धीरे-धीरे द्रष्टा ! 

समाज के जिस अल्पसंख्यक हिस्से से इस उपन्यास के पत्रों का सम्बन्ध 

है, वह अपनी संवेदना की गहराई के चलते आज भी समाज की मुख्यधारा 

में नहीं है ! लेकिन वह है, और ‘नदी के द्वीप’ के चरों पत्र मानव-अनुभूति 

के सर्वकालिक सार्वभौमिक आधारभूत तत्त्वों के प्रतिनिधि उस  संवेदना - 

प्रवण वर्ग की इमानदार अभिव्यक्ति करते हैं ! ‘नदी के द्वीप’ में एक 

सामाजिक आदर्श भी है, जिसे अज्ञेय ने अपने किसी वक्तव्य में रेखांकित 

भी किया था, और वह है-दर्द से मंजकर व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास, ऐसी 

स्वतंत्रता की उद्भावना जो दूसरे को भी स्वतंत्र करती हो ! व्यक्ति और 

समूह के बीच फैली तमाम विकृतियों से पीड़ित हमारे समाज में ऐसी  

कृतियाँ सदैव प्रासंगिक रहेंगी !

Happy Birthday to Hindi poet Sachchidananda Vatsyayan Agyeya            
                              










 परिचय :
* प्रतिभासम्पन्‍न कवि, शैलीकार, कथा साहित्य को एक नया मोड़ देने
   वाले कथाकार, ललित निबंधकार, सम्पादक और सफल अध्यापक
    के रूप में जाने जाते हैं।
* प्रयोगवाद और नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठत करने वाले 
    कवि हैं। 
*  एक अच्छे फोटोग्राफ़र और सत्यांवेषी पर्यटक भी थे। 
*  सैनिकऔर विशाल भारत नामक पत्रिका का संपादन भी किया।
 * 1980 में उन्होंने ’ वत्सलनिधि ’ नामक न्यास ( trust ) की स्थापना
     की थी जिसका उद्‍देश्‍य साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम 
     करना था।
*  ’ आँगन के पार द्‍वार ’ - साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा ’ कितनी
       नावों में कितनी बार ’ - ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुए।
*     इनकी रचनाओं  की भाषा खड़ी बोली हिन्दी , कहीं-कहीं संस्कृत 
       भी थी।
*    प्रमुख रचनाएँ - हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम, चिन्ता, सागर मुद्रा
       बावरा अहेरी, महावृक्ष के नीचे  इत्यादि। 

शब्दार्थ :

 द्‍वीप                          -                  टापू

स्रोतस्विनी                   -                  नदी

कोण                            -                 कोना

अंतरीप                         -               जल में दूर तक जाने वाला भू-भाग

सैकत-कूल                    -              रेतीला किनारा

प्लवन                            -             बाढ़

क्रोड                              -             गोद

वृहत                              -            विशाल


प्रश्‍न : नदी के द्‌वीप शीर्षक कविता के प्रतीकों को स्पष्ट करते हुए 
         उनके पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर : 'नदी के द्‌वीप’ कविता 'हरी घास पर क्षण भर’ नामक काव्य-संग्रह से ली गई है। कवि का पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय’ है। इन्हें अपनी रचनाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गय है। इनकी रचनाओं का मूल स्वर दर्शन और चिंतन है। इनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ महावृक्ष के नीचे, चिंता, हरी घास पर क्षण भर इत्यादि हैं।
' नदी के द्‍वीप ’ कविता में कवि ने व्यक्ति, समाज, परंपरा, पिता-माता आदि को प्रतीक के रूप में चित्रित किया है। इस कविता में कवि ने समाज और व्यक्ति के संबंधों की खोज की है। सामूहिक जीवन के बीच कवि समाज का महत्त्व वहीं तक स्वीकारते हैं, जहाँ तक वह व्यक्ति के विकास में सहायक होता है। सामूहिक जीवन के बीच व्यक्ति की निजी अस्मिता को सुरक्षित रखने की अभिलाषा भी कवि ने इस कविता में की है।
प्रस्तुत कविता में व्यक्ति, समाज और परंपरा के पारस्परिक संबंधों को सर्वथा एक नवीन दृष्टि से देखा गया है। द्‌वीप व्यक्ति का प्रतीक है जिसका जन्म वंश परंपरा के मध्य हुआ है। यही वंश परंपरा व्यक्ति को समाज से जोड़ती है, व्यक्ति की पहचान उसके ही द्‌वारा होती है। जिस प्रकार द्‌वीप का निर्माण नदी करती है, परंतु द्‌वीप नदी नहीं होती है, उसकी अपनी अलग पहचान होती है। इसी प्रकार व्यक्ति के नाम के संग उसके वंश का नाम भी जुड़ा होता है, पर वह व्यक्ति समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाता है। 
"माँ है वह ! इसी से हम बने हैं
किंतु हम हैं द्‌वीप। हम धारा नहीं हैं।"
वंश परंपरा हमारी माँ है, जो हज़ारों वर्षों से निरंतर बहती चली आ रही है। व्यक्ति इस परंपरा की स्थायी पहचान है। वह बहना नहीं चाहता है क्योंकि अगर वह परंपराओं में बह जाएगा तो उसकी अलग पहचान नहीं बन पाएगी - " हम बहेंगे तो रहेंगे ही नही।"
किसी भी वंश मे जन्म लेना नियति या भाग्य माना जाता है मगर अपने कर्मों से समाज में मनुष्य अपना अलग स्थान बना सकता है। वे लोग अकर्मण्य होते हैं, जो अपनी असफलता का दोष वंश परंपरा पर लगाते हैं। वंश परंपरा का सहारा सदा व्यक्ति को अपने निर्माण के लिए मिलता है। नदी ही द्‌वीप को भूखंड से मिलाती है, परंतु हमें संस्कार हमारी वंश परंपरा ही देती है। भूखण्ड द्‌वीप का पिता है और नदी द्‌वीप की माता, जो द्‍वीप को भूखण्ड  से मिलाने का कार्य करती है। नदी माँ है, माँ संस्कार देती है, हमारे स्वभाव को माँजती है। पिता का कार्य पोषण है, परंतु पहचान व्यक्ति को स्वयं बनानी पड़ती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि 'नदी के द्‌वीप’  एक प्रतीकात्मक कविता है जिसमे व्यक्ति, वंश परंपरा तथा समाज को द्‌वीप, नदी एवं भूखण्ड से जोड़ा गया है। द्‍वीप भू का ही एक खण्ड है, परंतु नदी के कारण उसका अस्तित्व अलग है। व्यक्ति भी समाज का ही एक अंग है और सामाजिक परंपराएँ उसे विशिष्ट व्यक्ति बना देती हैं। वह अपनी व्यक्तिगत दृष्टिकोण से ही समाज को पहचानता है।   


बादल को घिरते देखा है  
परिचय 
Nagarjun.jpg

नागार्जुन

: नागार्जुन जी का झुकाव मार्क्सवादी 
   चिंतन   की ओर रहा है।
: आरंभ में  'यात्री ’ उपनाम से मैथिली भाषा
   में लिखते थे।
: उनके व्यक्तित्व की विशेषता रही है कि 
   उन्होंने जीवनपर्यन्त किसी की नौकरी की
   या गैर सरकारी संस्थान का आश्रय नहीं 
   लिया।
:  भारतीय शोषित -उत्पीड़ित जनता के 
    सबसे बड़े पक्षधर थे।
:  प्रकृति के प्रति इनका गहरा आकर्षण  
                                             रहा।
: संस्कृतनिष्ठ परिमार्जित हिन्दी भाषा का प्रयोग किया गया है।
: प्रमुख रचनाएँ - युगधारा, सतरंगी पंखो वाली, तालाब की मछलियाँ,
   तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस आदि ।

शब्दार्थ :

अमल -  स्वच्छ, साफ़   

धवल -  सफ़ेद

तुहिन -  ओस

स्वर्णिम -  सुनहला

तुंग - ऊँचे

पावस - वर्षा

बिसतंतु - कमल नाल के रेशे

विरहित - अलग होकर

चिर अभिशापित - हमेशा से शापित

शैवाल - काई

क्रंदन - रोना

प्रणय-कलह - प्रेम में छेड़खानी

शत - सौ

सहस्त्र - हज़ार

अलख - न दिखने वाला

उन्मादक - मस्त कर देन वाला

परिमल - सुगंध

धावित - दौड़कर

झंझानिल - तूफ़ान

शोणित - लाल

कुंतल - घुँअराले बाल

कुवलय - कमल

वेणी - बालों की चोटी

रजत - चाँदी

खंचित - जड़ी हुई

द्राक्षासव - अंगूर का रस (मदिरा)

लोहित - लाल

त्रिपदी - तिपाई

निदाघ - गर्म

प्रश्‍न : '  बादल को घिरते देखा है ’ में कवि ने किस ऋतु में हिमालय के 
सौंदर्य का दर्शन किया था और किस प्रकार ? उदाहरण देकर समझाएँ।
उत्तर : ' बादल को घिरते देखा है ’ के कवि नागार्जुन जी हैं। इनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था। आरंभ में वे ' यात्री ' उपनाम से मैथिली भाषा में लिखते थे। बौद्‍ध धर्म स्वीकारने के बाद एक मेधावी बौद्‍ध दार्शनिक के नाम पर इन्होंने ' नागार्जुन ’ नाम धारण किया। इनकी कविताओं में मानवता का परिचय समग्र रूप में मिलता है। शोषण-उत्पीड़न, किसानी जीवन के प्रति लगाव, गहन सामाजिक प्रतिबद्‍धता, प्रखर राजनीतिक चेतना की कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ ही प्रकृति के प्रति भी इनका गहरा आकर्षण रहा है। इनकी कुछ चर्चित काव्य रचनाएँ हैं - युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाँ , तुमने कहा था इत्यादि।
' बादल को घिरते देखा है ’ कविता में कवि ने वसंत ऋतु में हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य का  वर्णन किया है।  नागार्जुन जी ने उस प्राकृतिक सौंदर्य का अनुभव स्वयं किया है। कवि ने उस पर्वतीय अंचल के अनुपम सौंदर्य से भाव-विभोर होकर उसका चित्रण करने का प्रयास किया है। कवि ने उसे देखा है, उससे अभिभूत हुए हैं और भावों की अधिकता ने उन्हें रचना के लिए बाध्य किया है।
वसंत  ऋतु में बर्फ से ढके स्वच्छ हिमालय पर्वत पर जब बादल छा जाते हैं, और छोटे-छोटे बर्फ के कण मानसरोवर के स्वर्णिम कमलों पर गिर कर उसके सौंदर्य को और बढ़ा देते हैं। इस समय मैदानी इलाकों की वर्षा ऋतु की उमस से परेशान हंस इसी मानसरोवर में कमलनाल के खट्‍टे-मीठे रेशों को खोजते हुए दिखाई देते हैं, जो उस सरोवर के सौंदर्य को और निखार देती है।
" उनके श्यामल नील सलिल में
   समतल देशों से आ-आकर
   पावस की उमस से आकुल
   तिक्त मधुर बिसतंतु खोजते,
   हंसों को तिरते देखा है।"
वसंत ऋतु के प्रभात काल का सुंदर बिम्ब कवि ने निर्मित किया है। पहाड़ियों को प्रातःकालीन धूप सुनहरी बना देती है। चकवा-चकवी ने प्राचीन काल के अभिशाप के कारण पूरी रात अलग-अलग रहकर व्यतीत की है। इस समय उसी मानसरोवर के किनारे वे दोनों पक्षी प्रेम रूपी छेड़-छाड़ करते हुए दिखाई देते हैं ---
        " उस महान सरवर के तीरे,
           शैवालों की हरी दरी पर,
            प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।"
कवि ने इसी वसंत ऋतु में हिमालय की दुर्गम घाटियों में कस्तूरी मृग को अपनी ही नाभी से निकलने वाली अलख सुगंध के पीछे पागलों की भाँति दौड़ते और उसे न पाने पर स्वयं पर चिढ़ते हुए भी देखा है।
नागार्जुन जी के अनुसार उन्होंने वसंत ऋतु में हिमालय के सौंदर्य का पूर्ण आनंद उठाया है। उनका आनंद कवि कल्पित न था वरन्‌ वास्तविक था। अर्थात्‌ उन्होंने हिमालय पर न तो कुबेर की अलका नगरी देखी और न ही कालिदास के मेघदूत का ही कोई साक्ष्य प्राप्त हुआ।
प्रस्तुत कविता में कवि ने अनुराग, प्रेम, ममता तथा मानवीय मूल्य की भी अभिव्यक्ति की है। कवि ने हिमालय में रह रहे किन्नर-किन्नरियों को भी देखा था। वसंत ऋतु में ये किन्नर-किन्नरियाँ रंग-बिरंगे फूलों से अपना श्रृंगार कर , कलात्मक पात्रों में मदिरा का सेवन करते हैं और अपने मधुर गीत-संगीत से संपूर्ण वातावरण को संगीतमय बनाकर , उसे स्वर्ग बना देते हैं।
" नरम निदाध बाल-कस्तूरी
   मृगछालों पर पलथी मारे
   मदिरारुण आँखों वाले उन
   उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
   मृदुल मनोरम अँगुलियों को
   वंशी पर फिरते देखा है।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि ’ बादल को घिरते देखा है ’ कविता के माध्यम से कवि ने वसंत ऋतु में हिमालय पर्वत के प्राकृतिक सौंदर्य का बड़ा ही मनोरम और हृदय ग्राही चित्र प्रस्तुत किया है। चूँकि यह कविता कवि के  हृदय का भाव चित्र भी है अतः इसे हम महज प्रकृति का चित्रण नहीं कह सकते हैं।  

आः धरती कितना देती है ।                 " सुमित्रानंदन पंत "

       सुमित्रानंदन पंत के लिए चित्र परिणाम

  • सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा (उत्तर प्रदेश) के कैसोनी गाँव में 20 मई 1900 को हुआ था। इनके जन्म के कुछ घंटों पश्‍चात ही इनकी माँ  चल बसी।  आपका पालन-पोषण आपकी दादी ने ही किया। 
  •  आपका वास्तविक नाम गुसाई दत्त रखा गया था। आपको अपना नाम पसंद नहीं था सो आपने अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया।
  • 1919 में महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित होकर अपनी  
       शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय हो 
       गए। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला का स्वाध्याय किया।


  • आपका प्रकृति से असीम लगाव था। बचपन से ही सुन्दर रचनाएँ   लिखा करते थे।  
  •  प्रमुख कृतियां : वीणा, उच्छावास, पल्लव, ग्रंथी, गुंजन, लोकायतन पल्लवणी, मधु ज्वाला, मानसी, वाणी, युग पथ, सत्यकाम। पुरस्कार/सम्मान : "चिदम्बरा" के लिये भारतीय ज्ञानपीठ, लोकायतन के लिये सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिये उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया।   
  • निधन:  28 दिसम्बर 1977 को आपका निधन हो गया।

शब्दार्थ         

कलदार              - सिक्के
बंध्या                  -    बंजर
बाट जोहना        - प्रतीक्षा करना
पाँवड़े                 - गलीचा
अर्धशती             - पचास साल
मधु                    - वसंत
ऊदी                  - बैंगनी रंग की
विमूढ़                - मुग्ध
नवागत             - नए पौधे
डिंब                  - अंडा
निर्निमेष           - एकटक
चंदोवे               - वितान, शामियाना
लतर                - बेल
मावस              - अमावस्या
प्रसविनी          - जन्म देने वाली 

पंक्तियों पर आधारित प्रश्‍न :        

रत्‍न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं,
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं,
इसमे मानव ममता के दाने बोने हैं,
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फ़सलें,
मानवता की - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ,
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।

प्रश्‍न १. कविता का नाम बताते हुए रत्‍न प्रसविनी का अर्थ स्पष्ट करें।  
उत्‍तर - प्रस्तुत पद्‌यांश 'आ: धरती कितना देती है' से लिया गया है।
            रत्‍न प्रसविनी का अर्थ रत्‍नों को जन्म देने वाली है।

प्रश्‍न २. सच्ची समता, जन की क्षमता और मानव ममता से कवि का   
             क्या आशय है ?
उत्‍तर - सच्ची समता अर्थात्‌ सभी के मन में एक-दूसरे के प्रति 
            समानता की भावना होनी चाहिए। इस समानता रूपी बीज 
            को हमें धरती में बोना है और अपने सामर्थ्य के अनुसार 
            सींचना भी है।  इसके बाद जो फ़सल खेतों में लहलहाएगी, वह
            जन-जन के बीच आपसी प्रेम और भाईचारा फैलाएगी तथा
            सबका जीवन समृद्‌ध करेगी।   

प्रश्‍न ३. कवि के अनुसार धरती पर खुशहाली कैसे लाई जा सकती 
            है ?
उत्‍तर - कवि के अनुसार अपने श्रम से हम धरती पर खुशहाली ला 
            सकते हैं। हमारे मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेम और समानता
             की भावना होनी चाहिए। हम एक-दूसरे की मदद करने से  
             पीछे  न हटें, अपनी क्षमता और शक्ति के अनुसार सबका 
             भला करें, सबको अपना हक और सम्मान मिले, और स्वार्थ 
              तथा लालच से सभी दूर रह सकें, तो धरती पर खुशहाली        
              सहज ही लाई जा सकती है। 

प्रश्‍न ४.'हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे' पंक्ति की व्याख्या कविता के
             आधार पर करें। 
उत्‍तर - कवि ने बचपन में मोह और लोभ में पड़कर पैसे बोए थे और 
             सोचा था कि उनसे फलने वाले रुपए-पैसे से वह धन्‍ना सेठ
              बन जाएगा। कवि का यह सपना तब चूर हो गया जब धरती 
              ने एक भी पैसा नहीं उगाया। हताश होकर उन्होंने धरती को
               बंध्या तक कह दिया था।
               बरसों बाद एक दिन बरसात में कौतुहलवश कवि ने अपने 
              आँगन में सेम के कुछ बीज बो दिए, और कुछ समय पश्‍चात्‌
               वहाँ सैकड़ों सेम के पौधे उगे। उनमें इतने फूल और फल 
               लगे कि कवि के आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा, उन्हें लगा कि 
                धरती तो रत्‍न-प्रसविनी है। उन्हें बचपन की अपनी गलती 
                का एहसास हुआ।
                कवि का कहना है कि अगर इसी तरह हम धरती में समता, 
                 लोगों की क्षमता और प्रेम-भाईचारे के बीज बो दें, तो उनसे 
                  फलने वाली फसल दुनिया में सुख-शांति ला सकती है।  
  

 




तुलसीदास के पद             “ तुलसीदास “

                    तुलसीदास के लिए चित्र परिणाम      



परिचय :
* भक्तिकाल रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।

* इनके गुरू नरहरिदास जी थे।

* इनके काव्य का विषय इनके आराध्य श्री राम थे।

* इनकी काव्य की भाषा अवधी और ब्रज रही है।

* इनके काव्य में भक्ति , ज्ञान और वैराग्य की त्रिवेणी
  प्रवाहित होती है।

* प्रमुख रचना :- रामचरितमानस , विनयपत्रिका ,
   कवितावली , गीतावली आदि हैं।

पद १.
शब्दार्थ 

दूलह  – दूल्हा , वर

दुल्  -  दुल्हन  , वधू

जुवा   -   युवा 

नग    -   आभूषणों में लगाया जाने वाला कीमती पत्थर

निहाति -  देखती

कर    -    हा

विप्र    -    ब्राह्‍मण

कंकन   -     कंगन

पद २.
शब्दार्थ :
कागर – पंख

ीर  - तोता

भूषण – आभूषण

लस्यों – सुशोभित

सुभामिनी - अच्छी स्त्री (सीता)

काई  – नमी के कारण जमने वाली घास

सनमानी – सम्मान

द्‍वै     -   दो 

पहुनाई   -   अतिथि सत्कार

बटाऊ    -   यात्री

नाईं     -    तरह

नीरू     -    पानी

पद ३.
शब्दार्थ :
काको   -   किसका

पियारे   -   प्यारे

बिरद    -   यश , प्रसिद्‌धि

हठि     -   हठ  ,  ज़िद

अधम   -    नीच  , हीन

उधारे   -    उद्‍धार किया है।

मृग    -    हिरण

खग    -     पक्षी (जटायु)

व्याध   -     शिकारी [ वाल्मीकि ]

विटप   -     वृक्ष [ कुबेर के दो बेटे ]




प्रश्‍न: कौन किसके रूप को निहार रहा है और क्यों ? उस समय के दृश्‍य का भी वर्णन करें। श्रीराम के लिए पिता की आज्ञा मानना कितना महत्त्वपूर्ण था ? तुलसीदास श्री राम को छोड़कर और किसी देवी – देवता का स्मरण क्यों नहीं करना चाहते हैं ? उदाहरण सहित बताइए ।

उत्तर : भक्तिकाल के रामभक्ति शाखा के महान कवि तुलसीदास श्री राम के अनन्य उपासक थे। श्री राम के जीवन और उनके चरित्र का गुणगान करना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्‍देश्‍य था। उनकी रचनाएँ अवधी और ब्रज भाषा में मिलती है। दोहा , चौपाई , पद , कवित्व , और सवैया आदि पदों के माध्यम से उन्होंने अपनी रचनाओं को रचा। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – रामचरितमानस , कवितावली , गीतावली , दोहावली और विनयत्रिका। संकलित पदों में तुलसीदास जी ने श्री राम के सौंदर्य , आदर्शवान एवं आज्ञाकारी पुत्र के कर्तव्य और उनके गुणों का वर्णन किया है। प्रस्तुत पदों में दुल्हन के रूप में सजी सीता विवाह के समय , ल्हे के रूप में सजे श्रीराम जी के सौंदर्य को अपने कंगन के नग में देख रही हैं। विवाह के समय लड़कियाँ घूँघट में रहती हैं और इसी का लाभ उठाते हुए तुलसीदास जी ने सीता जी की लज्जाशीलता को दिखाने के लिए उन्हें श्रीराम की ओर सीधे न देखते हुए अपने कंगन के नग में पड़ने वाली श्रीराम के प्रतिबिंब पर सुध – बुध खोते हुए दिखाया है। श्रीराम के सौंदर्य से वे इतनी मोहित हो जाती हैं कि और सब कुछ भूल जाती हैं , उनकी पलकें भी नहीं झपकती हैं तथा हाथ जहाँ के तहाँ रुके रहते हैं क्योंकि वे कंगन में पड़ने वाले श्रीराम के सौंदर्य को एक पल के लिए भी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देना चाहती थीं।

राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाईं

यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहिं

श्रीराम जी एक आज्ञाकारी पुत्र थे । पिता की आज्ञा उनके लिए ब्रह्‍मवाक्य था। यही कारण है कि पिता के वनवास के आदेश पर वे ज़रा भी व्यग्र नहीं हुए , न माता कैकेयी के प्रति उनके मन में किसी प्रकार की क्रोध की भावना उत्पन्न हुई। पिता के एक आदेश पर उन्होंने राजसी वस्त्राभूषणों का उसी तरह त्याग किया जिस प्रकार वसंत ऋतु में तोते के पंख स्वाभाविक रूप से झड़ जाते हैं। वनवास जाने से पहले वे सभी संबंधियों से प्रेमपूर्वक विदा लेकर तथा उनका समुचित सम्मान करके राजभवन के विलासितापूर्ण जीवन का इस प्रकार त्याग करते हैं जैसे कोई पथिक कहीं भी एक दो दिन विश्राम करके चला जाता है।

राजिव लोचन रामु चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं॥

गोस्वामी तुलसीदास जी की श्रीराम में अनन्य भक्ति थी। वे उनकी भक्ति को छोड़कर किसी अन्य देवी – देवता का स्मरण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि अपने दयालु स्वभाव से ही सभी प्राणियों को सद्‍गति देने के इच्छुक श्रीराम के समान और कोई नहीं है जिन्होंने जटायु , मारीच , शबरी , अहिल्या,  यमलार्जुन , तथा कालयवन जैसे प्रतापी राजा को भी सद्‍गति दी थी।

खग , मृग , व्याध , पषान , विटप जड़ , जवन – कवन सुर तारे ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रीराम के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू के प्रति तुलसीदास जी का अनन्य प्रेम है। वह रूप से सुन्दर तथा अपने सुख – दुख के प्रति तटस्थ होते हुए भी अपने भक्तों के प्रति कृपालु और पतितों के उद्‍धारक हैं।  





जाग तुझको दूर जाना


                                                                                              
                                           - महादेवी वर्मा कवयित्री परिचय

* आधुनिक काल (छायावाद) की एक प्रमुखतम रचनाकार। हिन्दी 
  साहित्य की मीरा’।


* दुख और करुणा काव्य का मूल स्वर। काव्य और गद्‌य पर
  समान अधिकार।


* महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ के विचारों से प्रभावित।


* नारी की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। 


* रचनाओं में रहस्यवाद, दुख, पीड़ा की सूक्ष्म अनुभूतियों का
  मर्मस्पर्शी चित्रण।


* प्रयाग महिला विद्‌यापीठ की उपकुलपति रहीं।


* पद्‌म भूषण, ज्ञानपीठ, भारतभारती से सम्मानित। सेक्सरिया 
  और मंगलाप्रसाद पुरस्कार भी।


* भाषा तत्सम प्रधान।


* प्रमुख रचनाएँ –


  नीरजा, नीहार, रश्मि, यामा, दीपशिखा ... (काव्य)


  अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, शृंखला की कड़ियाँ (गद्‌य)



 शब्द                                अर्थ             

चिर                      -       बहुत समय से


 अचल                    -        अडिग


 अलसित                  -        आलस्य से भरा


क्रंदन                      -       रोना


कारा                      -       बंधन, जेल


मधुप                     –       भौंरा


वज्र                      –       कठोर


सुधा                     -       अमृत


वात                     -        हवा


मलय                    -        चंदन


उपधान                   -       सहारा, तकिया


उर                       -      हृदय


दृग                       -     आँख


पताका                    -      ध्वज


मानिनी                   -      मान करने वाली

प्रश्न - 'जाग तुझको दूर जाना’ कविता में कवयित्री ने देश की 
स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए देशवासियों को किन व्यवधानों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया है ?
उत्तर – सूक्ष्म, संवेदनशील, परिष्कृत सौंदर्य रुचि, समृद्‌ध कल्पना शक्ति और अनुभूति चित्रात्मकता के माध्यम से प्रणयी मन की स्वर लहरियाँ महादेवी के गीतों में व्यक्त होती हैं। प्रस्तुत कविता में देश के प्रति प्रेम, भक्ति व निष्ठा का जो भाव प्रकट हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। अपने विरह-गीतों के कारण महादेवी जी आधुनिक काल की मीरा कहलाती हैं। इन्हें पद्‌म भूषण से नवाज़ा गया। छायावादी और रहस्यवादी रचनाकारों में इनका स्थान महत्त्वपूर्ण है। इनका काव्य मूलत: प्रेम और विरह का काव्य है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – नीहार, नीरजा, रश्मि, दीपशिखा, यामा, स्मृति की कड़ियाँ, अतीत के चलचित्र आदि।

प्रस्तुत कविता में देशभक्ति का स्वर मुखर है। इस कविता का उद्‌देश्य देशभक्तों को जागरण का संदेश देना है। कवयित्री कहती हैं कि कठिन परिस्थितियों में भी हमें अपना उद्‌देश्य भूलना नहीं चाहिए, उसे ज़रूर हासिल करना चाहिए। भले ही प्रलय क्यों न आ जाए, तूफ़ान-झंझावात से राह कठिन ही क्यों न हो जाए, हिमालय में हलचल ही क्यों न मच जाए, ऐसी सारी बाधाओं से लोहा लेकर हमें अपना ध्येय प्राप्त करना चाहिए। प्राकृतिक प्रकोप भी हमारा मार्ग न रोक पाए। जो सोच लिया, उसे पूरा करने के लिए काल से टकराने की भी शक्ति हममें होनी चाहिए।

जीवन ईश्वर का दिया हुआ बहुमूल्य वरदान है। हम इस धरती पर किसी अधूरे काम को पूरा करने के लिए आए हैं। अपने लक्ष्य को पहचान कर उसे प्राप्त करने के लिए हमें निरंतर संघर्ष व प्रयास करते रहना चाहिए। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मार्ग के व्यवधानों को भी दूर करना हमारा कर्त्तव्य है। रिश्ते-नाते, मोह-माया इसमें बाधक न हों, अपितु साधक हों। भारत माता को मुक्त कराना हमारा एकमात्र ध्येय होना चाहिए। मोह-माया का आकर्षण हमें पथ से विचलित करता है। ओस की बूँदों से भीगे पुष्प बड़े आकर्षक होते हैं, भ्रमरों की गुनगुनाहट हमारा ध्यान अपनी ओर खींचती है। इन आकर्षणों मे उलझकर हम भारत माता का दर्द कैसे भूल सकते हैं। ये आकर्षण नश्वर हैं, ये छाया के समान हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं –

बाँध लेंगे क्या तुझे, यह मोम के बंधन सजीले ?    

पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले ?

विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,

क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले ?

कवयित्री संदेश देती हैं कि हमें सतर्क रहना चाहिए। हमारा ध्यान केवल अपने लक्ष्य पर ही हो, अर्जुन की तरह हमें भी चिड़िया की केवल आँख ही दिखाई दे, हमारी लौ केवल उसी में लगी रहे, मन भटके नहीं और हमारा विश्वास बना रहे। कवयित्री कहती हैं कि हमें अमरता का वरदान प्राप्त है, अत: हमें निडरता के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए। हमें तब तक विश्राम नहीं करना है, जब तक हम अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लें।

अत: हम कवयित्री के विचारों से पूर्णत: सहमत हैं कि अभी भी हमें आज़ादी नहीं मिली है, आज़ादी को पाने के लिए हमें हर तरह के व्यवधानों को पार करना होगा और सदैव सतर्क रहना होगा।

                    धेरे का दीप
                         
हरिवंश राय बच्चन की कविता के लिए चित्र परिणाम
हरिवंशराय बच्चन
                      

                    
                                                           

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