1. Sara Akash Video.
प्रश्न २:
प्रश्न १:
उपन्यास का आरंभ सुख और दुख के समीक्षण के साथ किस प्रकार होता है ? समझाकर लिखिए।
उत्तर :
राजेंद्र यादव द्वारा रचित ‘ सारा आकाश ’
एक मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित सामाजिक उपन्यास है। यह आत्मकथात्मक शैली में लिखा
गया है। यह घर-घर की कहानी है। आधुनिक
हिंदी साहित्यकारों में राजेंद्र यादव एक चर्चित नाम है। वे बहुमुखी प्रतिभा के
धनी थे। अपनी रचनाओं में इन्होंने वर्तमान सामाजिक परिवेश को बड़ी जीवंतता के साथ
प्रस्तुत किया है, खासकर उपन्यासों में तो आधुनिक जीवन की विडंबनाओं, त्रासदियों,
सुख-दुख, आशा-निराशा और परंपरागत जकड़न का आईना ही हमारे सामने रख दिया है।
प्रस्तुत उपन्यास के अलावा एक
इंच मुस्कान, उखड़े हुए लोग, कुल्टा, शह और मात इनके कुछ अन्य उपन्यास हैं। खेल-खिलौने, जहाँ लक्ष्मी कैद है,
अभिमन्यु की आत्म हत्या (कहानी संग्रह) और आवाज़ तेरी है (कविता
संग्रह) के भी अमर रचनाकार यही हैं।हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध हंस पत्रिका के ये सम्पादक थे।
हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा राजेन्द्र यादव को उनके समग्र लेखन के लिये वर्ष 2003-04 का सर्वोच्च सम्मान शलाका सम्मान प्रदान किया गया था।
उपन्यास का
आरंभ सुख और दुख के समीक्षण के साथ होता है। उपन्यास का नायक समर एक
महत्त्वाकांक्षी छात्र है जो इंटर के बोर्ड की परीक्षा देने वाला है। उसके सपने
ऊँचे हैं। वह एम.ए उत्तीर्ण करके प्रोफेसर बनना चाहता है। अभी वह विवाह जैसे बंधन
के लिए तैयार नहीं है, पर उसके माता-पिता उसका विवाह प्रभा नाम की एक लड़की से करवा
देते हैं। उसके माता-पिता का विचार था कि समर के विवाह में जो नकद दहेज आएगा, उससे
मुन्नी के विवाह का कर्ज़ा उतारने में सहायता मिलेगी। घर में समर के विवाह की खुशी
में ढोलकें बज रही थी और औरतें बन्नी-बन्नो का गीत गा रहीं थी। घर के फाटक पर
किन्नर अपनी कमर मटका-मटका कर और ताली बजा-बजा कर गा रहीं थी। समर के विवाह उत्सव
के उपलक्ष पर उनके पिता अपने मेहमानों के साथ शराब पीने-पिलाने में व्यस्त थे। “
अरे लो...लो...एक और पियो ठाकुर साहब ! तुम्हारे दूसरे लड़के की शादी है और तुम ऐसे
सुस्त हो ? पर यार , तुम्हारे ये संबंधी साहब कुछ ........क्यों ठाकुर साहब, आप
लोगों में भी बारात के लिए देसी का ही इंतज़ाम किया जाता है ? आज तो विलायती .....”
इसी समय गली के पार , ठीक समर के घर के सामने वाले घर की साँवल की बहू मिट्टी का
तेल छिड़क कर अपनी कोठरी में जल रही थी। धुएँ के बगुले देखकर लोग उसे बचाने भागे थे
किन्तु दरवाज़ा तोड़ते-तोड़ते तक साँवल की बहू के प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। स्वयं समर
के शब्दों में “ कैसा बोझीला प्रारंभ है ज़िंदगी का ! मन होता है सब कुछ छोड़-छाड़ कर
कहीं दूर अनजानी जगह भाग जाऊँ।“
इन सभी घटनाओं
के कारण विचलित समर वहाँ से मंदिर चला गया। उसके माता-पिता भी इस विवाह से खुश
नहीं थे। उन्होंने समर की शादी से अच्छे-खासे दहेज की उम्मीद की थी, जिससे वे अपना
कर्ज़ा उतार सके। परंतु यहाँ भी उन्हें निराशा ही होती है जो हमें ठाकुर की बातों
से पता चलता है “ हमारे साथ धोखा किया गया है। “ महत्त्वाकांक्षी समर स्वयं
को इन सभी झमेलों से दूर रखना चाहता है। विवाह में परिवारवालों को कुछ मिला या
नहीं इसकी परवाह समर को न थी। उसने अब अपने निर्माण में पूर्णतः लगने का निश्चय
कर लिया था। उसने प्रभा को उसके घर छोड़ने का निश्चय किया और उससे न बोलने का
दृढ़-संकल्प लिया। परंतु अपने अंदर चल रहे मानसिक द्वंद के कारण समर यह सोचने पर
भी विवश हो जाता है कि, यदि प्रभा से अपनी महत्त्वाकांक्षा की चर्चा की जाए तो,
शायद वह समझ जाएगी क्योंकि वह पढ़ी-लिखी है। समर जिसे बाधा समझ रहा है शायद वह उसके
निर्माण के लिए सहायक हो। “ अच्छा, क्यों जी , पत्नी क्या सदैव बाधा होती हैं ?
राम की शक्ति को क्या सीता से अलग किया जा सकता है ? राजपुताने की क्षत्राणियों ने
ही क्या खुद अपने सुहागों को रण में नहीं भेज दिया था ? “ समर अपनी इसी मानसिक द्वंद्व के कारण कोई सही
निर्णय नहीं ले पाता है। वह स्वयं को एक निर्बल प्राणी समझता है। अतः वह उपेक्षा
के अस्त्र और उदासीनता की ढाल से लड़ना चाहता है। वह भगवान से शक्ति, संयम और
सुबुद्धि माँगता है कि वह सही मार्ग पर चल सके।
इस
प्रकार हम देखते हैं कि , समर का आरंभिक जीवन या फिर उपन्यास का आरंभ सुख और दुख
का समीक्षण था और इसके कई कारण थे जैसे- समर की महत्त्वाकांक्षाएँ, विवाह की
अनिच्छा, विवाह के बंधन को भविष्य के सपनों में बाधक समझना, माता-पिता की इच्छा के
कारण मजबूरी में विवाह करना, उन्हें पर्याप्त दहेज न मिलना आदि और इसी वजह से समर के
लिए ज़िंदगी बोझिल बन गई थी। प्रश्न २:
“अरे, इससे
परदा नहीं होता तो मत करो। छाती पर पत्थर रखके उसे भी सह लेंगे; लेकिन बेशरमी की
ऐसी हद तो मत करो। ऊपर जाकर सिर धोते समय तुम्हें दिखा नहीं कि चारों तरफ़ लोग क्या
कहेंगे ?”
प्रश्न - पंक्तियों
का संदर्भ स्पष्ट करते हुए बताएँ कि कौन, किसके लिए और क्यों ऐसे शब्दों का प्रयोग
कर रहा है ? संबंधित व्यक्ति की स्थिति उस परिवार में दयनीय क्यों है ? पठित पाठों
के आधर पर लिखें।
उत्तर - आधुनिक हिंदी
साहित्यकारों में राजेंद्र यादव एक चर्चित नाम है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
अपनी रचनाओं में इन्होंने वर्तमान सामाजिक परिवेश को बड़ी जीवंतता के साथ प्रस्तुत
किया है, खासकर उपन्यासों में तो आधुनिक जीवन की विडंबनाओं, त्रासदियों, सुख-दुख,
आशा-निराशा और परंपरागत जकड़न का आईना ही हमारे सामने रख दिया है। प्रस्तुत उपन्यास
के अलावा एक इंच मुस्कान, उखड़े हुए लोग, कुल्टा, शह और
मात इनके कुछ अन्य उपन्यास हैं। खेल-खिलौने, जहाँ
लक्ष्मी कैद है, अभिमन्यु की आत्म हत्या (कहानी संग्रह) और आवाज़
तेरी है (कविता संग्रह) के भी अमर रचनाकार यही हैं।हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध हंस पत्रिका के ये सम्पादक थे।
हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा राजेन्द्र यादव को उनके समग्र लेखन के लिये वर्ष 2003-04 का सर्वोच्च सम्मान शलाका सम्मान प्रदान किया गया था।
ठंड का मौसम था। धूप सेंकने और सिर धोने के लिए
प्रभा मुन्नी के साथ छत पर चली गई थी। मुन्नी ने वहीं उसका सिर धुलवा दिया। यही
बात बाबूजी को नागवार गुज़री। प्रभा की इस हरकत ने मानों उनके गुस्से की आग में घी
डालने का काम किया। उनके तथाकथित सम्मान को ठेस पहुँची कि नई बहू के बारे में सबकी
क्या धारणा बनी होगी, उसे नंगे सिर और खुले बालों कइयों ने छत पर देखा होगा,
क्योंकि धूप सेंकने के लिए आस-पड़ोस के घरों के लोग भी छतों पर जाते थे। जब बाबूजी
को और कुछ न सूझा तो उन्होंने घर के रीति-रिवाज़ की तरह अपनी तल्ख़ ज़ुबान से प्रभा
की खातिरदारी कर दी- “जाड़ों में धूप सेंकने के बहाने सभी
तो ऊपर छतों पर चले जाते हैं। इधर-उधर ताक-झाँक करने में उनके बाप का क्या जाता
है।”
घर में प्रभा की दयनीय
स्थिति के कई कारण हो सकते हैं। अभाव और तंगी से उपजी परिथितियाँ मध्य्वर्गीय
परिवार की गाड़ी को पीछे की ओर धकेलती हैं। यही बात समर के परिवार पर भी लागू होती
है। बाबूजी की पेंशन और भैया की तन्ख्वाह मिलाकर
भी घर चलाना दूभर हो रहा था, क्योंकि दोनों ही मामूली थे। परिवार बड़ा था, माँ-बाप
के अलावा चार बेटे थे, ब्याहता बेटी का बोझ भी इन्हीं के सर पर था। कुछ कर्ज़ भी
बाबूजी के सिर पर था। ऐसी विकट स्थिति में प्रभा का घर के रंग में ढल न पाना उसकी
करुण-दशा का मुख्य कारण बना। परिवार में वही नई थी, इसलिए दुख भी उसके हिस्से में
ही ज़्यादा था।
उसकी दयनीय स्थिति के लिए कई बिंदुओं पर चर्चा
की जा सकती है – सबसे पहली और मुख्य वजह है कि प्रभा एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की
बहू है, जहाँ सुविधाओं का अभाव और रुढ़िगत मान्यताएँ हैं। समर और उसका आपस में
बर्ताव भी असहज था। महात्वाकांक्षी समर नारी को अपने आदर्शों के मार्ग में रोड़ा
मानता था। वह तो शादी करना ही नहीं चाहता था इसलिए प्रभा को अपनी पत्नी स्वीकार न
कर सका। दोनों के संबंध बिल्कुल अस्वाभाविक थे। समर का अहंकार प्रभा को उसके आगे
टिकने ही नहीं देता था। सुहाग रात से लेकर अगले कुछ महीनों तक उनका आपस में बातें
न करना उनके बीच की असहज स्थिति को दर्शाता है। अपमानित महसूस कर, बदले की भावना
से ग्रसित रहना, भावुकता में बह जाना, घर से भागकर इधर-उधर भटकना, इन सब बातों में
कहीं न कहीं प्रभा के प्रति समर की उपेक्षा ही झलकती। प्रभा चुप ही रहती, और
इन्हीं वजहों से वे एक-दूसरे से दूर होते गए। लेखक के शब्दों में – “बेशर्म !
यही आजकल की शिक्षा है ? – न किसी का लिहाज, न हया। समझती है, दूसरे लड़कों की तरह
मैं इसे मनाऊँगा, खुशामद करूँगा ! हुँह, सो खातिर जमा रखे। कयामत तक तो यह मौका
आएगा नहीं।”
दहेज न लाना भी प्रभा के लिए अभिशाप बन गया। माँ
और बबूजी कभी-कभी इशारों में कहते, पर भाभी तो इस बात को लेकर जैसे उसके पीछे ही
पड़ गईं। बात-बात पर दहेज के लिए ताने देना घर के बड़ों का स्वभाव बन गया था। यही
नहीं, मुन्नी की शादी में बाबूजी को कुछ कर्ज़ लेना पड़ा था, जिसका बोझ वे अभी तक
उतार नहीं पाए थे। उन्होंने सोचा था कि समर के दहेज के पैसों से उसे उतार देंगे,
पर यहाँ भी कुछ हासिल न हुआ। अम्मा की बेबसी इन बातों में बखूबी झलकती है –
“कहें क्या चंदन, शादी के तो सारे हौसले मर ही
गए...... पढ़ी-लिखी लड़की के सिवा तूने कुछ और भी देखा, बस ?”
मुन्नी ही क्यों, समर की शादी पर भी वे उधारी
में डूबे थे। ये सारी देनदारियाँ भूत की तरह उनके पीछे चलती थीं। उस पर प्रभा का
पढ़ा-लिखा होना उसके लिए गुनाह हो गया था।
स्त्रियों की स्वभावगत ईर्ष्या ने भी प्रभा की
हालत दीन कर दी थी। वह भाभी से हर बात में बीस थी। वह भाभी से अधिक सुंदर,
पढ़ी-लिखी, आधुनिक खयालों वाली, चतुर और समझदार युवती थी। घर का काम उसने ऐसे संभाल
लिया था जैसे कोई अनुभावी संभालता है। यह बात भाभी ठीक हजम न कर पाईं। वे अक्सर
प्रभा को नीचा दिखाने के बहाने ढूँढती। उन्हें घर में अपना कद ऊँचा रखना था, और
इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार बैठी थीं। उनकी उक्ति यहाँ देखी जा सकती है –
“तुम्हारा ब्याह भी क्या हुआ लालाजी... !
क्या-क्या अरमान थे, सब पर पानी फिर गया। लेन-देन की तो खैर कोई बात नहीं, एकाध
साल में आई-गई बात हो जाती है। लेकिन वह महारानीजी तो ज़िंदगी-भर को बँध गईं।” भाभी प्रभा के खिलाफ़ माँ, बाबूजी और अपने पति
को कुछ न कुछ सुनाती ही रहतीं, और इस तरह उन्होंने उसका जीना हराम कर रखा था।
परिवार मे बस मुन्नी को उससे सहानुभूति थी।
इन सबके अलावा मिट्टी के गणेश वाली घटना, बच्ची
का दूध बिखर जाना, दाल में अधिक नमक वाली बात आदि ने मिलकर भी प्रभा की हालत दयनीय
कर दी थी। यह भेद बाद में खुला कि दाल में ऊपर से नमक भाभी ने डाला था ताकि प्रभा
को अपमानित किया जा सके, और वह सबकी नज़रों में गिर सके।
कहा जा सकता है कि उपरोक्त बातों के अलावा,
प्रभा का हर बात पर मौन रह जाना भी कहीं न कहीं उसकी स्थिति हीन करता था। एक
पढ़ी-लिखी, आधुनिक विचारों वाली स्त्री होने के नाते आवश्यकतानुसार वह अपनी बातें
परिवार वालों, खासकर समर के सामने रख ही सकती थी। तब स्थिति भिन्न होती, उसे मर-मर
कर जीना नहीं पड़ता, और वह घर-परिवार उसके लिए आनंद-निकेतन बन जाता।
प्रश्न ३ : समर के चरित्र में अनेक गुणों के साथ-साथ कुछ
खामियाँ
भी थीं। ’ सारा आकाश ’ के आधार पर उत्तर
दीजिए।
अथवा
प्रश्न : समर का चरित्र-चित्रण कीजिए।
उत्तर : ’ सारा आकाश ’ आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया एक
सामाजिक उपन्यास का मुख्य पात्र समर अपनी कहानी स्वयं कहता है। उपन्यास राजेंद्र
यादव द्वारा रचित एक समस्यामूलक उपन्यास है जिसमें प्रश्न हैं, पर उत्तर नही।
भावनाएँ हैं पर विचार नहीं। जिसमें दर्द है पर आनंद नहीं। जिसमें समस्याएँ हैं पर
समाधान नहीं। ’ सारा आकाश ’ के लेखक राजेंद्र यादव जी हिन्दी की सुपरिचित लेखिका
मन्नू भंडारी पति थे। वे एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे। इन्होंने अत्यंत सामान्य
भाषा में अपने आस-पास के जन-जीवन का सुन्दर वर्णन किया है। वे मनोविज्ञान के पारखी
थे। हिन्दी अकादमी द्वारा इन्हें सर्वोच्च सम्मान ’ शलाका सम्मान ’ प्रदान किया
गया। समर के चरित्र की कुछ विशेषताएँ पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। प्रारंभ
से अंत तक समर का अन्तर्द्वंद्व कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक होता है। उसमें ऐसा
अनोखापन है जिसे पढ़कर पाठक भावुक हो उठता है।
महत्त्वाकांक्षी – समर बड़ा ही
महत्त्वाकांक्षी था, उसका सपना उच्च शिक्षा प्राप्त करना था। पहले बी.ए और फिर
एम.ए.पास कर लेने के बाद वह प्रोफेसर बनना चाहता था। शिवाजी, गाँधी जैसे महापुरुष
उसके आदर्श थे। देश और समाज के काम आना उसका सपना था, जिसे पूरा करने के लिए, उसने
अपनी पत्नी प्रभा का भी सहयोग माँगा ।
संवेदनशील – समर अत्यंत भावुक
व्यक्ति है। जब-जब घर में कोई घटना घटती है, वह अत्यंत भावुक हो जाता है। जब प्रभा
रात को छत पर बैठी रो रही थी तब वह भावुक हो उससे उसके रोने की वजह पूछता है। और
जब प्रभा ने अपने सारे शिकवे गिले समर को बताए तो उसकी मानसिकता कुछ इस प्रकार थी –
“ कभी एक पल को भी मैंने यह महसूस करने की कोशिश की कि उसके भी जान है? इसे भी कोई
चीज़ दुख या सुख पहुँचाती है ? इसकी भी कुछ अभिलाषाएँ और आकांक्षाएँ हैं ? – कभी नहीं
! कभी नहीं ! कभी एक बार मेरे मन में नहीं आया कि वह आखिर यहाँ किसके आधार और किसके
बूते पर नौकरों की तरह रात-दिन खटती है ? ”
अहंकारी - समर
में पुरुष का अहम् है जिसके कारण वह शादी की पहली रात को पत्नी से बोलने की पहल
नहीं करता है। प्रभा की बनाई दाल में नमक अधिक हो जाने से उसने किसी और सब्ज़ी को
नहीं चखा। उसने रोटी का टुकड़ा उगल दिया और थाली को माथे से लगाकर फ़ेंककर उठ गया।
प्रेस में नौकरी मिलने की बात तय हो जाने पर भी उसके अहम् और स्वाभिमान के हमें
दर्शन होते हैं। अपने भविष्य के महल खड़े करने की बातों के दौरान वह प्रभा से कहता
है कि उस घर से एक पैसे भी नहीं लेने हैं ।
पलायनवादी - उपन्यास के आरंभ से ही हम देखते हैं कि समर एक
पलयनवादी प्रवृत्ति का युवक है। जब भी समस्या उत्पन्न होती है, वह उससे दूर भागता
है। घर पर यदि झगड़े हो तो वह अकसर मंदिर या दिवाकर के घर चला जाता है। समर के ही
शब्दों में , “ जाने क्यों मेरा मन बड़ा भारी-भारी और रोगी-सा रहने लगा है। जब देखो
तब वह रुपए-पैसों की तंगी का बखान। हमेशा यह संकेत कि हमारी मदद करो। मैं तो इनके
सामने पड़ते डरता हूँ। कभी होस्टल में किसी के यहाँ जा बैठे, या किसी के घर चले गए।
समझ में नहीं आता, मेरे भीतर क्या था जो खो गया। मैं एक और बात को भी समझने लगा
हूँ कि लोग मुझे बिल्कुल बेकार का ऐसा आदमी मानने लगे हैं जिसे कोई काम-धाम नहीं,
दिन-भर बस मन-भर का मुँह बनाए घूमता रहता हो।”
विरोधाभासी – समर के चरित्र में
विरोधाभास पाया जाता है। उपन्यास में हमें यह देखने को मिलता है कि समर की कथनी और
करनी में ज़मीन आसमान का अंतर था। वह अकसर फ़ैसले लेने में असमर्थ होता है। कभी-कभी
तो वह सोचता है कि ज़िन्दगी भर प्रभा से बात नहीं करेगा, परंतु दूसरे ही क्षण उसके प्रति
कोमल हो जाता है। वह अपने को नए विचारों को मानने वाला मानता था, परंतु प्रभा की
गलती से मिट्टी के गणेश से बर्तन माँजने पर वह सबके सामने उसे थप्पड़ मारता है और
अपशब्द का भी प्रयोग करता है। सिर पर चुटिया रखकर वह यह दिखाना चाहता है कि वह
सनातन धर्म में विश्वास रखता है, वहीं दूसरी और जब दिवाकर और उसकी पत्नी के साथ
फ़िल्म देखने जाता है तो संकोच वश उसे अपने बालों में छिपाने लगता है।
क्रोधी स्वभाव – समर के स्वभाव की एक
सबसे बड़ी कमी थी कि वह बहुत जल्दी क्रोधित हो जाता है। प्रभा जब उसकी और अपनी अनिच्छा
से चूड़ियाँ पहन लेती है तो वह उन्हें सबके सामने अपने हाथों से तोड़ डालता है।
प्रभा की कलाई लहू-लुहान हो जाती है। बाबूजी के वेतन के बारे में पूछते ही क्रोधित
हो जाता है। उनसे तर्क-वितर्क करता है और फिर मार भी खाता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि समर एक ऐसे व्यक्तित्व का
प्रतिनिधित्व करता है, जिसके सपने तथा महत्त्वाकांक्षाएँ निम्न मध्यवर्गीय परिवार
की आर्थिक समस्याओं के कारण टूट जाती हैं। वह परिस्थितियों से जूझता है पर उसे वह
नहीं मिलता, जो वह चाहता है। यह उसके अस्तित्व के संघर्ष की कहानी है। वह अपनी
आशाओं, महात्त्वाकांक्षाओं और सामाजिक-सांस्कारिक सीमाओं के कारण चलते द्वंद्व,
हारने-थकने और इन सबके बीच कोई समाधान निकालने के लिए बेचैन है।
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