अँधेरे का दीपक
हरिवंशराय ’ बच्चन ’
परिचय :
* हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी
२००३) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे।
* हालावाद' के प्रवर्तक बच्चन जी हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद
काल के प्रमुख कवियों मे से एक हैं।
* उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है।
* १९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो
उस समय १४ वर्ष की थीं।
* १९३६ में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु के पांच साल बाद १९४१
में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया।
* उनकी कृति दो चट्टाने को १९६८ में हिन्दी कविता का साहित्य
अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
* बच्चन को भारत सरकार द्वारा १९७६ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र
में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
* प्रामुख रचनाएँ : तेरा हार , मधुशाला , मधुबाला , मधुकलश ,
आत्म परिचय, निशा निमंत्रण , एकांत संगीत ,
आकुल अंतर , सतरंगिनी , हलाहल इत्यादि।
प्रश्न: ’ अँधेरे का दीपक ’ कविता में बच्चन जी का आस्थावादी स्वर
किस प्रकार मुखरित हुआ है ? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर : हरिवंशराय ' बच्चन ' उत्तर छायावादी युग के एक ऐसे कवि हैं
जिनकी ' मधुशाला ' के मधु ने युवावर्ग को मदोन्मत्त कर
दिया था। ये आस्थावादी कवि हैं। इनकी कविताओं में
मानवीय भावनाओं की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति इन्हें एक
लोकप्रिय कवि बनाती है। ' अँधेरे का दीपक ' बच्चन जी की
एक चर्चित कविता है। कविता का मूल प्रतिपाद्य है - व्यक्ति
और उसके जीवन में घटने वाली दुखद और सुखद घटनाएँ।
प्रकृति के सभी आयाम, निर्जीव या सजीव, नाशवान हैं।
सृजन , चिंतन और संहार प्रकृति का शाश्वत धर्म है। प्रकृति
के नियम बहुत कठोर होते हैं। वे हमारे अनुसार संचालित
नहीं होते बल्कि हमें उनके साथ समायोजन करना होता है।
कविता की प्रथम पंक्ति ही इसी बात का संदेश देती है -
" है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? "
मानव अपनी कल्पना से कमनीय भवन का निर्माण करता
है। उसे अपनी भावनाओं से सजाता है। अपनी पसंद के
अनुसार उसे सँवारता है। उसमें प्रेम का रंग भरता है पर
एक दिन प्रकृति का कहर टूटता है और वह महल धराशायी
हो जाता है। पर कवि निराश नहीं हैं क्योंकि संहार प्रकृति
का शाश्वत नियम है पर मनुष्य उसे अपनी मेहनत से पुनः
निर्मित करता है। कवि के शब्दों में -
" ढह गया वह तो जुटाकर , ईंट , पत्थर , कंकड़ों को ,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ?"
कवि एक दार्शनिक की भाँति जीवन की व्याख्या करते हैं।
मानव जीवन की नदी सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद
के साथ प्रवाहित होती है। उसमें उठने वाली लहरों में
मृदुलता भी है और कठोरता भी । इन दोनों को स्वीकार
करना ही हमारी नियाति है। इसी में जीवन की सार्थकता है।
" वे गए तो सोचकर यह , लौटनेवाले नहीं वे ,
खोज मन का मीत कोई , लौ लगाना कब मना है ? "
इस प्रकार स्पष्ट है कि बच्चन जी एक आशावादी कवि हैं।
उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से आशावादी होने का
संदेश जन-जन तक पहुँचाया है। उनकी कविता हमें आधा
गिलास खाली नहीं अपितु आधा गिलास भरा देखने का
संदेश देता है। जीवन का यदि आधा भाग दुख से परिपूर्ण
है तो दूसरा आधा भाग सुख से भी भरा है। हमें उस सुख
को देखकर प्रसन्न होना चाहिए। यह दृष्टिकोण हमें
आशावान बनाता है। इस आशा के बल पर हम बड़े से
बड़ा आघात सहकर भी जीवन मेम आगे बढ़ सकते हैं।
यह कविता हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। दुख
में भी मुसकुराने से दुख कम हो जाता है। जीना आसान
हो जाता है। दुख पड़ने पर जीवन डाँवाडोल हो जाता है।
पर उसे नियाति मानकर स्वीकार कर लेने में ही भलाई है।
" वह गई तो ले गई , उल्लास के आधार माना ,
पर अथिरता पर समय की , मुस्कराना कब मना है ? "
अतः हम कह सकते हैं कि बच्चन जी की कविता का मूल
विषय है - प्रेम। मनुष्य के जीवन में दुख की एक बड़ी
भूमिका है क्योंकि यह उसके जीवन में निखार लाता है।
सुख हमें शिथिल और निष्क्रिय बनाता है। प्रकृति के
नियमों के सामने बड़े से बड़े राजा-महाराजा भी चंचल
हो उठते हैं। जब प्रकृति विनाश करती है तब कोई उसे
रोक नहीं सकता। विनाश के पश्चात फिर निर्माण होता
है।
" जो बसे हैं वे उजड़ते हैं , प्रकृति के जड़ नियम से ,
पर किसी उजड़े हुए को , फिर बसाना कब मना है ? "
हम कह सकते हैं कि प्रस्तुत कविता में कवि का
आस्थावादी स्वर मुखरित हुआ है। कवि के अनुसार
प्रकृति में सृजन और संहार का नियम चलता रहता है।
इन परिवर्तनों से विचलित होने की अपेक्षा मुस्कराने का
संदेश देना उनके इसी आस्थावादी दृष्टिकोण की
परिचायक है। हर परिस्थिति में आनंदित रहना ही
हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।
साखी
हरिवंशराय ’ बच्चन ’
परिचय :
* हरिवंश राय श्रीवास्तव "बच्चन" (२७ नवम्बर १९०७ – १८ जनवरी
२००३) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे।
* हालावाद' के प्रवर्तक बच्चन जी हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद
काल के प्रमुख कवियों मे से एक हैं।
* उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है।
* १९२६ में १९ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ जो
उस समय १४ वर्ष की थीं।
* १९३६ में श्यामा की टीबी के कारण मृत्यु के पांच साल बाद १९४१
में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया।
* उनकी कृति दो चट्टाने को १९६८ में हिन्दी कविता का साहित्य
अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
* बच्चन को भारत सरकार द्वारा १९७६ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र
में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
* प्रामुख रचनाएँ : तेरा हार , मधुशाला , मधुबाला , मधुकलश ,
आत्म परिचय, निशा निमंत्रण , एकांत संगीत ,
आकुल अंतर , सतरंगिनी , हलाहल इत्यादि।
प्रश्न: ’ अँधेरे का दीपक ’ कविता में बच्चन जी का आस्थावादी स्वर
किस प्रकार मुखरित हुआ है ? उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर : हरिवंशराय ' बच्चन ' उत्तर छायावादी युग के एक ऐसे कवि हैं
जिनकी ' मधुशाला ' के मधु ने युवावर्ग को मदोन्मत्त कर
दिया था। ये आस्थावादी कवि हैं। इनकी कविताओं में
मानवीय भावनाओं की मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति इन्हें एक
लोकप्रिय कवि बनाती है। ' अँधेरे का दीपक ' बच्चन जी की
एक चर्चित कविता है। कविता का मूल प्रतिपाद्य है - व्यक्ति
और उसके जीवन में घटने वाली दुखद और सुखद घटनाएँ।
प्रकृति के सभी आयाम, निर्जीव या सजीव, नाशवान हैं।
सृजन , चिंतन और संहार प्रकृति का शाश्वत धर्म है। प्रकृति
के नियम बहुत कठोर होते हैं। वे हमारे अनुसार संचालित
नहीं होते बल्कि हमें उनके साथ समायोजन करना होता है।
कविता की प्रथम पंक्ति ही इसी बात का संदेश देती है -
" है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? "
मानव अपनी कल्पना से कमनीय भवन का निर्माण करता
है। उसे अपनी भावनाओं से सजाता है। अपनी पसंद के
अनुसार उसे सँवारता है। उसमें प्रेम का रंग भरता है पर
एक दिन प्रकृति का कहर टूटता है और वह महल धराशायी
हो जाता है। पर कवि निराश नहीं हैं क्योंकि संहार प्रकृति
का शाश्वत नियम है पर मनुष्य उसे अपनी मेहनत से पुनः
निर्मित करता है। कवि के शब्दों में -
" ढह गया वह तो जुटाकर , ईंट , पत्थर , कंकड़ों को ,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ?"
कवि एक दार्शनिक की भाँति जीवन की व्याख्या करते हैं।
मानव जीवन की नदी सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद
के साथ प्रवाहित होती है। उसमें उठने वाली लहरों में
मृदुलता भी है और कठोरता भी । इन दोनों को स्वीकार
करना ही हमारी नियाति है। इसी में जीवन की सार्थकता है।
" वे गए तो सोचकर यह , लौटनेवाले नहीं वे ,
खोज मन का मीत कोई , लौ लगाना कब मना है ? "
इस प्रकार स्पष्ट है कि बच्चन जी एक आशावादी कवि हैं।
उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से आशावादी होने का
संदेश जन-जन तक पहुँचाया है। उनकी कविता हमें आधा
गिलास खाली नहीं अपितु आधा गिलास भरा देखने का
संदेश देता है। जीवन का यदि आधा भाग दुख से परिपूर्ण
है तो दूसरा आधा भाग सुख से भी भरा है। हमें उस सुख
को देखकर प्रसन्न होना चाहिए। यह दृष्टिकोण हमें
आशावान बनाता है। इस आशा के बल पर हम बड़े से
बड़ा आघात सहकर भी जीवन मेम आगे बढ़ सकते हैं।
यह कविता हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। दुख
में भी मुसकुराने से दुख कम हो जाता है। जीना आसान
हो जाता है। दुख पड़ने पर जीवन डाँवाडोल हो जाता है।
पर उसे नियाति मानकर स्वीकार कर लेने में ही भलाई है।
" वह गई तो ले गई , उल्लास के आधार माना ,
पर अथिरता पर समय की , मुस्कराना कब मना है ? "
अतः हम कह सकते हैं कि बच्चन जी की कविता का मूल
विषय है - प्रेम। मनुष्य के जीवन में दुख की एक बड़ी
भूमिका है क्योंकि यह उसके जीवन में निखार लाता है।
सुख हमें शिथिल और निष्क्रिय बनाता है। प्रकृति के
नियमों के सामने बड़े से बड़े राजा-महाराजा भी चंचल
हो उठते हैं। जब प्रकृति विनाश करती है तब कोई उसे
रोक नहीं सकता। विनाश के पश्चात फिर निर्माण होता
है।
" जो बसे हैं वे उजड़ते हैं , प्रकृति के जड़ नियम से ,
पर किसी उजड़े हुए को , फिर बसाना कब मना है ? "
हम कह सकते हैं कि प्रस्तुत कविता में कवि का
आस्थावादी स्वर मुखरित हुआ है। कवि के अनुसार
प्रकृति में सृजन और संहार का नियम चलता रहता है।
इन परिवर्तनों से विचलित होने की अपेक्षा मुस्कराने का
संदेश देना उनके इसी आस्थावादी दृष्टिकोण की
परिचायक है। हर परिस्थिति में आनंदित रहना ही
हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए।
साखी
प्रश्न : कबीरदास जी का संक्षिप्त
परिचय देते हुए ’ साखी
’ शब्द का अर्थ बताएँ , साथ ही
यह भी बताएँ कि संत
कवि कबीरदास ने अपने दोहे
में जीवन के किस सत्य
को उजागर किया है ?
उत्तर : कबीरदास जी भक्तिकाल के निर्गुण
भक्तिधारा के ज्ञानमार्गी संत कवि
थे। इनकी रचना
’ बीजक ’ नामक पुस्तक
में संगृहित हैं जिसके तीन भाग हैं – साखी
, सबद् और रमैनी। इनकी भाषा
पंचमेल खिचड़ी या साधुक्कड़ी थी।
’ साखी ’ शब्द का
शाब्दिक अर्थ है साक्ष्य अर्थात् प्रमाण
। साखी के अंतर्गत आने वाले
दोहों में जिन सत्य को उजागर किया गया
है, कबीरदास जी ने
उसका प्रमाण भी प्रस्तुत किया है।
कबीरदास जी ने अपने इन
दोहों में ईश्वर के महत्व
, सद्गुरू की महिमा,
प्रभु या गुरू के
प्रेम, अथवा गुरू
की कृपा से परम तत्व
के दर्शन होना और ईश्वर के ज्ञान
से अहं की समाप्ति आदि का
उल्लेख किया गया है। कबीरदास जी ने इन
दोहों में राम अर्थात् परमात्मा से बिछुड़े
हुए जीव को कहीं भी
शांति न मिलने के सत्य
से अवगत कराया है। यही कारण है कि प्रत्येक
जीव अपने जन्म से मृत्यु तक संघर्ष
करता है, और मृत्यु
के बाद परमात्मा स मिलकर ही उसे
मुक्ति प्राप्त होती है।
“ बाँसुरी सुख , नाँ रैणि सुख , ना सुख सुपिनै मांहि।
कबीर बिछुट्या राम सूँ , ना सुख धूप
न छाँह ॥“
कबीरदास जी कहते हैं कि, पारस पत्थर का उपयोग तभी तक है, जब तक लोहा है। यदि
लोहा ही समाप्त हो जाए तो पारस पत्थर किसे सोना बनाएगा। इसी प्रकार ईश्वर के दर्शन
की अनुभूति मानव को जीवित अवस्था में ही होना चाहिए। मृत्यु के बाद यदि दर्शन होते
हैं तो जीव उस सुख की अनुभूति नहीं कर पाता है क्योंकि तब वह स्वयं परमात्मा में
विलीन हो जाता है।
कबीरदास जी का मानना है कि ’ अहं ’ और ईश्वर कभी भी साथ-साथ नहीं चल सकते हैं
क्योंकि ईश्वर का ज्ञान रूपी प्रकाश पड़ते ही व्यक्ति का अहं स्वतः नष्ट हो जाता
है। कबीरदास जी ने मनुष्य को इस सत्य से भी परिचित कराया है कि ईश्वर मनुष्य के
अंदर वास करता है , परंतु मनुष्य अपनी अज्ञानता के अंधकार में उसे देख नहीं पाता
है तथा उसकी तलाश में दर-दर भटकता रहता है।
कबीरदास जी के दोहों से हमने जिन सत्यों को जाना है, हम मानते हैं कि वे सभी
सही हैं। कबीरदास जी ने ईश्वर जीव, अहंकार आदि को जिस साक्ष्य के साथ प्रस्तुत
किया है, वे सभी सटीक हैं । कबीरदास जी ने ईष्वर की प्राप्ति से व्यक्ति के अहम् के
मिटने की भी बात की है। आत्मा परमात्मा का ही एक अंश होता है। आत्मा परमात्मा का
स्वरूप भी सत् , चित् और आनंद है। ज्ञान के प्रकाश से आराधक भी ईष्वरमय हो जाता
है।
“ जब मैं था तब हरि नहिं , अब
हरि हैं मैं नाहिं॥ ”
कबीर व्यवसाय से जुलाहे थे। वे अपना व्यवसाय करते हुए ईश्वर प्रेम में लीन
रहते थे। उनके मुख से निकली वाणी को उनके शिष्य लेखबद्ध करते थे। कबीर ने शरीर से
नहीं मन से योग धारण किया था। उनके अनुसार घर छोड़कर , गेरुए वस्त्र पहनकर इधर-उधर
भटकने से ईश्वर नहीं मिलता। गृहस्थी में रहते हुए, अपनी जिम्मेदारियों को निभाते
हुए भी आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
“ तन कौ जोगी सब करै, मन को विरला कोइ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होई॥ ”
इस प्रकार कबीर के दोहों में हमें जीवन से जुड़ी सच्चाईयाँ साक्ष्य के साथ
मिलती हैं। उनके दोहे उनके ज्ञान की गवाह है।
नदी के द्वीप
प्रश्न : नदी के द्वीप शीर्षक कविता के
प्रतीकों को स्पष्ट करते हुए उनके पारस्परिक संबंधों पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल
अध्यापक के रूप में जाना जाता है। बी.एस.सी. करके अँग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर बम बनाते हुए पकडे गये और
वहाँ से फरार भी हो गए। सन् 1930 ई. के अन्त में पकड़ लिये गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। "आँगन के पार द्वार" पर सन् 1964 में इन्हें साहित्य अकादमी के
पुरस्कार तथा 1978 में " कितनी नावों में कितनी बार" पर भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्होंने अनेक वर्षों तक दैनिक
नवभारत टाइम्स का संपादन किया।
इनकी रचनाओं में दार्शनिकता और चिंतन को विशेष महत्त्व दिया गया है। इनकी भाषा सहज है जिसमें तत्सम एवं नए मुहावरों का भरपूर प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ -
हरी घास पर क्षण भर, इत्यलम, बावरा अहेरी, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, सागर मुद्रा आदि।
नदी के द्वीप
अज्ञेय द्वारा लिखी गई हिन्दी की
श्रेष्ठ प्रतीकात्मक कविता है जिसमें कवि ने नदी, द्वीप, भूखंड के द्वारा
व्यक्ति, परम्परा और समाज
के पारस्परिक संबंधों को समझने की कोशिश की है। प्रस्तुत कविता में प्रतीकों के माध्यम से विचार को संप्रेषित किया गया है। विचार प्रतीकों में ढाले गए हैं-
द्वीप =
व्यक्तित्व = शिशु
नदी =
संस्कृति/परंपरा = माँ
भूखण्ड = समाज =
पिता
कविता में आए
प्रतीकों के दो-दो अर्थ हैं-एक प्राकृतिक है (द्वीप, नदी, भूखण्ड) और दूसरा
मानवीय( शिशु , माँ,पिता) और ये
दोनों मिलकर प्रकृति और मनुष्य के
अविभाज्य सृष्टि-संबंध को अभिव्यक्त करते हैं।
नदी जिस तरह द्वीप
के उभार, सैकत-कूल को गढ़ती
है,उसके बाहरी और
भीतरी रूपाकारों को गढ़ती है,संस्कृति वैसे ही व्यक्तित्व
की रूपरेखा, चाल-चलन , चरित्र और मानवीय मूल्य-बोध को गढ़ती है।
कवि के शब्दों
में-
हम नदी के द्वीप हैं
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ बच्चे को
नहलाती-धुलाती है, कपडे पहनाती है, बदन की मालिश करती है, दूध पिलाती है और
इस तरह उसके शरीर को गर्भ के बाहर भी
गढ़ती और आकार देती है। दूसरी ओर वह उसकी पहली शिक्षिका होती है जो उसे नीति का, जीवन मूल्यों का, प्यार, विश्वासों और
मान्यताओं का संस्कार देती
है, उसके मन को गढती
है। संस्कृति भी व्यक्तित्व का विकास इसी तरह से करती है। लेकिन जिस तरह शिशु माँ के गर्भ से निकलकर स्वतंत्र अस्तित्व हासिल करता है, बचपन, यौवन और वयस्कता की सीढियाँ चढते हुए माँ से अलग अपना
स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करता है, उसी तरह व्यक्ति भी संस्कृति या
परम्परा से रूप-आकार और
संस्कार पाने के बावजूद मूलत: स्वतंत्र अस्तित्व रखता है।
कवि के अनुसार
संस्कृति के प्रति समर्पण और स्वतंत्र
अस्तित्व का बोध ही व्यक्तित्व का निर्माण करता है। व्यक्ति उस संस्कृति या
परम्परा में बहता नहीं। ऐसा करने से वह रेत बन जाएगा। रेत के कण की कोई अलग पहचान नहीं होती। व्यक्ति की पहचान ही
मिट जाएगी। व्यक्ति के पैर उखड़ जाएँगे
और उसका अस्तित्व परम्परा की बाढ़ में बह जाएगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का संस्कृति या परम्परा के प्रति कोई
योगदान नहीं रहेगा। व्यक्ति परम्परा
रूपी नदी के पानी में रेत के रूप में मिलकर उसे गंदला ही करेगा।
कवि यह इनकार
नहीं करता कि भूखण्ड (समाज/पिता) से
द्वीप (व्यक्ति/शिशु ) का रिश्ता है, लेकिन यह रिश्ता अप्रत्यक्ष है, औपचारिक है, दूरस्थ है, कम आत्मीय है, ज़रूरत भर का है. सचमुच द्वीप से
भूखण्ड दूर ही होता है और नदी ही दोनों को मिलाती है, उसी तरह जैसे माँ ही बच्चे को पिता का बोध कराती है। शिशु पैदा होने के साथ माँ पर ही निर्भर है अपनी मूलभूत ज़रूरतों के लिए। यदि माँ न बताए तो शिशु प्रामाणिक तौर पर नहीं जान सकता कि उसका पिता कौन है। अज्ञेय इस कविता में व्यक्ति, समाज और संस्कृति
का ऐसा ही संबंध देखते हैं। व्यक्ति के लिए संस्कृति आंतरिक है, उसकी जीवनी शक्ति
है जबकि समाज बाहरी है, जो सिर्फ़ जीने का साधन मुहैया कराता है।
कवि के शब्दों
में -
द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप. यह अपनी नियती है.
हम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी की क्रोड में.
हम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी की क्रोड में.
वह वृहत भूखंड से हम को मिलाती है.
और वह भूखंड अपना पितर है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
अत: निष्कर्ष में
हम कह सकते हैं कि "नदी के द्वीप" एक प्रतीकात्मक कविता है जिसमें व्यक्ति, परम्परा और समाज को क्रमश: द्वीप, नदी एवं भूखंड से
जोड़ा गया है।
तुलसीदास के पद
यह जन्म से ब्राह्मण लेकिन कर्म से असुर था और अरब के
पास यवन देश में रहता था। पुराणों में इसे म्लेच्छों का
प्रमुख कहा गया है। कालयवन ऋषि शेशिरायण का पुत्र था। गर्ग गोत्र के ऋषि
शेशिरायण त्रिगत राज्य के कुलगुरु थे। उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और उनसे एक
अजेय पुत्र की मांग की। शिव ने कहा- 'तुम्हारा पुत्र संसार में अजेय होगा। कोई
अस्त्र-शस्त्र से हत्या नहीं होगी। सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कोई योद्धा उसे परास्त
नहीं कर पाएगा।'
वरदान प्राप्ति के पश्चात ऋषि शेशिरायण एक झरने के
पास से जा रहे थे कि उन्होंने एक स्त्री को जल नहाते हुए देखा, जो अप्सरा रम्भा थी।
दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गए और उनका पुत्र कालयवन हुआ। 'रंभा' समय समाप्ति पर स्वर्गलोक
वापस चली गई और अपना पुत्र ऋषि को सौंप गई।
काल जंग नामक एक क्रूर राजा मलीच देश पर राज करता था।
उसे कोई संतान न थी जिसके कारण वह परेशान रहता था। उसका मंत्री उसे आनंदगिरि पर्वत
के बाबा के पास ले गया। बाबा ने उसे बताया की वह ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग
ले।
ऋषि शेशिरायण ने बाबा के अनुग्रह पर पुत्र को काल जंग
को दे दिया। इस प्रकार कालयवन यवन देश का राजा बना। उसके समान वीर कोई न था। एक
बार उसने नारदजी से पूछा कि वह किससे युद्ध करे, जो उसके समान वीर हो। नारदजी ने उसे श्रीकृष्ण का नाम
बताया।
राम के कुल के राजा शल्य ने जरासंध को यह सलाह दी कि
वे कृष्ण को हराने के लिए कालयवन से दोस्ती करें। कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण के
लिए सब तैयारियां कर लीं। दूसरी ओर जरासंध भी सेना लेकर निकल गया।
कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा
नरेश कृष्ण के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया।
श्रीकृष्ण ने उत्तर में संदेश भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं
लड़ाएं। कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
अक्रूरजी और बलरामजी ने कृष्ण को इसके लिए मना किया, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें
कालयवन को शिव द्वारा दिए वरदान के बारे में बताया और यह भी कहा कि उसे कोई भी हरा
नहीं सकता। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि कालयवन राजा मुचुकुंद द्वारा मृत्यु को प्राप्त होगा।
एक बार इक्ष्वाकुवंशी मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद
देवताओं की सहायता के लिए दानवों से युद्ध करने देवलोक पहुंच गए थे। उन्होंने
देवताओं का साथ देकर और दानवों का संहार किया जिसके कारण देवता युद्ध जीत गए, तब इन्द्र ने उन्हें वर
मांगने को कहा। मुचुकुंद ने वापस पृथ्वीलोक जाने की इच्छा व्यक्त की, तब इन्द्र ने उन्हें
बताया कि पृथ्वी और देवलोक में समय का बहुत अंतर है जिस कारण अब वह समय नहीं रहा।
अब तक तो तुम्हारे सभी बंधु-बांधव मर चुके हैं। उनके वंश का भी कोई नहीं बचा।
यह जानकर मुचुकुंद बहुत दु:खी हुए और वर मांगा कि
उन्हें कलियुग के अंत तक सोना है। तब इन्द्र ने मुचुकुंद को वरदान दिया कि किसी
धरती के निर्जन स्थान पर जाकर सो जाएं और यदि कोई तुम्हें उठाएगा तो तुम्हारी
दृष्टि पड़ते ही वह भस्म हो जाएगा। इसी वरदान का प्रयोग श्रीकृष्ण कालयवन को
मृत्यु देने के लिए करना चाहते थे।
श्रीकृष्ण और कालयवन का संघर्ष : जब कालयवन और कृष्ण में
द्वंद्व युद्ध का जय हो गया तब कालयवन श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण तुरंत ही
दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और कालयवन उन्हें पकडऩे के लिए उनके
पीछे-पीछे दौडऩे लगा।
श्रीकृष्ण लीला करते हुए भाग रहे थे, कालयवन पग-पग पर यही
समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे
कालयवन भी घुसा। वहां उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा।
उसे देखकर कालयवन ने सोचा, मुझसे बचने के लिए
श्रीकृष्ण इस तरह भेष बदलकर छुप गए हैं:- 'देखो तो सही, मुझे मूर्ख बनाकर साधु बाबा बनकर सो रहा है।' उसने ऐसा कहकर उस सोए हुए
व्यक्ति को कसकर एक लात मारी।
वह पुरुष बहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की
ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर
पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से
कुछ रुष्ट हो गया था।
उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो
गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए
मिले, वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद थे। इस तरह कालयवन
का अंत हो गया।
baat athanni ki story is not there
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