1.स्टार्टअप इंडिया स्टैंडअप इंडिया (400 शब्दों में)
परिचय
भारत महान व्यक्तित्वों मैडम क्यूरी,
अमृता प्रीतम, रवींद्रनाथ टैगोर आदि का देश है जो पूरी दुनिया में अपने कामों, तेज दिमाग और उच्च कौशल के कारण प्रसिद्ध है। हांलाकि, हमारा देश, आज भी विकासशील ट्रैक पर है परंतु भारत के युवा बहुत
प्रतिभावान, उच्च कौशल वाले
और नवीन विचारों से पूर्ण है। स्टार्टअप इंडिया स्टैंडअप इंडिया योजना उनके
लिये नए और अभिनव विचारों का उपयोग सही दिशा में करने के लिये बहुत सहायक होगी।
स्टार्टअप
इंडिया स्टैंडअप इंडिया क्या है
एक नया अभियान जिसका नाम स्टार्टअप
इंडिया स्टैंडअप इंडिया है, की घोषणा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा स्वतंत्रता दिवस 2015 के भाषण में की गयी थी। ये मोदी सरकार द्वारा देश के युवाओं की
मदद करने के लिये एक प्रभावी योजना है। ये पहल युवाओं को उद्योगपति और उद्यमी बनने
का अवसर प्रदान करने के लिये भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गयी है
जिसके लिये एक स्टार्ट-अप नेटवर्क को स्थापित करने की आवश्यकता है। स्टार्ट-अप का
अर्थ, देश के युवाओं
को बैंको के माध्यम से वित्त प्रदान करना जिससे उनकी शुरुआत बेहतर मजबूती के साथ
हो ताकि वो भारत में अधिक रोजगार सृजन कर सके।
ये कार्यक्रम स्टार्ट-अप को वित्त
सहायता से सक्षम बनाने के लिये बड़ी शुरुआत है जिससे कि वो अपने नये अभिनव विचारों
को सही दिशा में उपयोग कर सके। प्रधानमंत्री ने कम से कम एक दलित और एक महिला
उद्यमी का समर्थन करने के लिए सभी बैंकों से अनुरोध किया है। ये योजना नये चेहरों को उद्यम की ओर
प्रोत्साहित करेगी और उनके कैरियर व देश का आर्थिक विकास करेगी।
स्टार्टअप
इंडिया स्टैंडअप इंडिया की कार्य योजना
इस योजना की पूरी कार्य-विधि 16 जनवरी 2016 को प्रस्तुत की जायेगी। एक योजना से
देश में जमीनी स्तर पर उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलेगा जो समाज के निम्न तबके के
युवाओं का लाभ सुनिश्चित करेगा। युवा ताजा दिमाग (नये विचारों से भरा हुआ), नये रास्ते और नयी सोच रखते है अतः वो
स्टार्टअप के लिये बेहतर है। इस कार्यक्रम के अभियान के सफल प्रक्षेपण के लिए
सीधी-कनेक्टिविटी के माध्यम से आईआईटी, एनआईटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आईआईएम
के संपर्क की जरूरत है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य बैंक वित्त के साथ साथ
स्टार्टअप व्यापार को उनके बीच उद्यमशीलता और नए रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के
प्रस्ताव को प्रोत्साहित करना है।
निष्कर्ष
ये पहल भारत का सही दिशा में नेतृत्व
के लिये आवश्यक है। इस अभियान के बारे में मुख्य बिंदु है कि ये देश के युवाओं को
स्टार्टअप के रुप में शामिल करता है क्योंकि उनके पास ताजे व नये विचारों वाला
दिमाग, आवश्यक दृढ़ता
और कारोबार का नेतृत्व करने के लिये नयी सोच होती है। युवा समाज के ऊर्जावान और
उच्च कौशल को रखने वाला भाग है इसलिये वो इस अभियान के लिये बेहतर लक्ष्य है।
[ छात्रों से अनुरोध है कि
वे अपने विचारों को इस निबंध में जगह दें। उपर्युक्त निबंध उनके लिए दिशा-निर्देश
का कार्य करेंगी ]
अशुद्ध वाक्य
१.पाकिस्तान ने गोले और तोपों से आक्रमण किया।
२.उसने अनेकों ग्रंथ लिखे।
३.महाभारत अठारह दिनों तक चलता रहा।
४.तेरी बात सुनते-सुनते कान पक गए।
५.पेड़ों पर तोता बैठा है।
६.उसने संतोष का साँस ली।
७.सविता ने जोर से हँस दिया।
८.मुझे बहुत आनंद आती है।
९.वह धीमी स्वर में बोला।
१०.राम और सीता वन को गई।
११.मैं यह काम नहीं किया हूँ।
१२.मैं पुस्तक को पढ़ता हूँ।
१३.हमने इस विषय को विचार किया।
१४.आठ बजने को दस मिनट है।
१५.वह देर में सोकर उठता है।
१६.मैं रविवार के दिन तुम्हारे घर आऊँगा।
१७.कुत्ता रेंकता है।
१८.मुझे सफल होने की निराशा है।
१९.गले में ग़ुलामी की बेड़ियाँ पड़ गई।
२०.गीता आई और कहा।
२१.मैंने तेरे को कितना समझाया।
२२.वह क्या जाने कि मैं कैसे जीवित हूँ।
२३.किसी और लड़के को बुलाओ।
२४.सिंह बड़ा बीभत्स होता है।
२५.उसे भारी दु:ख हुआ।
२६.सब लोग अपना काम करो।
२७.क्या यह संभव हो सकता है ?
२८.मैं दर्शन देने आया था।
२९.वह पढ़ना माँगता है।
३०.बस तुम इतने रूठ उठे बस
३१.तुम क्या काम करता है ?
३२.युग की माँग का यह बीड़ा कौन चबाता है।
३३.वह श्याम पर बरस गया।
३४.उसकी अक्ल चक्कर खा गई।
३५.उस पर घड़ों पानी गिर गया।
३६.वह लगभग दौड़ रहा था।
३७.सारी रात भर मैं जागता रहा।
३८.तुम बड़ा आगे बढ़ गया।
३९.इस पर्वतीय क्षेत्र में सर्वस्व शांति है।
४०.वह आंख से काना है ।
४१.आप शनिवार के दिन चले जाएं ।
४२.आप भोजन किया ?
४३. उसने नहाया ।
४४.मुझे आदेश दी ।
४५.उसे दो रोटी दे दो ।
४६.मेरा कान मत खाओ ।
४७.तुम तुम्हारे रास्ते लगो ।
४८.हमको क्या ?
४९.मुझे छिलके वाला धान चाहिए ।
५०.एक गोपनीय रहस्य ।
५१.उसे हरि को पटक डाला ।
५२.वह चिल्ला उठा ।
५३.वह श्याम पर बरस गया ।
५४.उसकी अक्ल चक्कर खा गई ।
५५.वह लगभग रोने लगा ।
५६.उसका सर नीचे था ।
५७.वे संतान को लेकर दुखी थे ।
५८.वहां अपार जनसमूह एकत्रित था ।
५९.तलवार की नोक पर।
६०.मेरी आयु बीस की है ।
६१.मेरे पिता सज्जन पुरुष हैं ।
६२.वे गुनगुने गर्म पानी से स्नान करते हैं ।
उत्तर
१.पाकिस्तान ने गोलों
और तोपों से आक्रमण किया।
२.उसने अनेक ग्रंथ लिखे।
३.महाभारत अठारह दिन
तक चलता रहा।
४.तेरी बातें सुनते-सुनते कान पक गए।
५.पेड़ पर तोता बैठा है।
६.उसने संतोष की साँस ली।
७.सविता जोर से हँस दी।
८.मुझे बहुत आनंद आता है।
९.वह धीमे स्वर में बोला।
११.मैंने यह काम नहीं किया है।
१२.मैं पुस्तक पढ़ता हूँ।
१३.हमने इस विषय पर विचार किया
१४.आठ बजने में दस मिनट है।
१५.वह देर से सोकर उठता है।
१६.मैं रविवार को तुम्हारे घर आऊँगा।
१७.कुत्ता भौंकता है।
१८.मुझे सफल होने की आशा नहीं है।
१९.पैरों में ग़ुलामी की बेड़ियाँ पड़ गई।
२०.गीता आई और उसने कहा।
२१.मैंने तुझे कितना समझाया।
२२.वह क्या जाने कि मैं कैसे जी रहा हूँ।
२३.किसी दूसरे लड़के को बुलाओ।
२४.सिंह बड़ा भयानक होता है।
२५.उसे बहुत दु:ख हुआ।
२६.सब लोग अपना-अपना काम करो।
२७.क्या यह संभव है ?
२८.मैं दर्शन करने आया था।
२९.वह पढ़ना चाहता है।
३०.तुम इतने में रूठ गए।
३१.तुम क्या काम करते हो ?
३२.युग की माँग का यह बीड़ा कौन उठाता है।
३३.वह श्याम पर बरस पड़ा।
३४.उसकी अक्ल चकरा गई।
३५.उस पर घड़ों पानी पड़ गया।
३६.वह दौड़ रहा था।
३७.मैं सारी रात जागता रहा।
३८.तुम बहुत आगे बढ़ गए।
३९.इस पर्वतीय क्षेत्र में
सर्वत्र शांति है।
४०.वह काना है
।
४१.आप शनिवार को
चले जाएं ।
४२.आपने भोजन
किया ।
४३.वह नहाया ।
४४.मुझे आदेश दिया ।
४५.उसे दो रोटियां दे दो ।
४६.मेरे कान मत खाओ ।
४७.तुम अपने रास्ते लगो ।
४८.हमें क्या ?
४९.मुझे धान चाहिए ।
५०.एक रहस्य ।
५१.उसने हरि को पटक दिया ।
५२.वह चिल्ला पड़ा ।
५३.वह श्याम पर बरस पड़ा ।
५४.उसकी अक्ल चकरा गई ।
५५.वह रोने लगा ।
५६.उसका सर नीचा था ।
५७.वे संतान के कारण दुखी थे ।
५८.वहाँ अपार जन -समूह एकत्र था ।
५९.तलवार की धार पर ।
६०.मेरी अवस्था बीस वर्ष की है ।
६१.मेरे पिता सज्जन हैं ।
६२.वे गुनगुने पानी से स्नान करते हैं ।
मुहावरों से वाक्य बनाएँ :-
- अंगूठा दिखाना (मना करना) – जब मैंने अपने मित्र से सहायता माँगी तो उसने अंगूठा दिखा दिया ।
- अकल का अच्छा होना (बेवकूफ होना) – उसे समझाने की कोशिश करना व्यर्थ है । वह तो पूरा अकल का अँधा है.
- अंग-अंग ढीला होना (थक जाना) – दिन भर परिश्रम करने में मेरा अंग- अंग ढीला हो गया है ।
- अन्धे की लकड़ी (एकमात्र सहारा) – मोहन अपने बूढ़े माता-पिता के लिए अन्धे की लकड़ी है ।
- अन्धे को दीपक दिखाना (नासमझ को उपदेश देना) – भगवान कृष्ण दुर्योधन के धृष्टतापूर्ण व्यवहार से समझ गए थे कि उसे उपदेश देना अन्धे को दीपक दिखाना है ।
- अपना उल्लू सीधा करना (अपना मतलब निकालना) – स्वार्थी मित्रों से बचकर रहना चाहिए । उन्हें तो अपना उल्लू सीधा करना आता है ।
- अकल मारी जाना (घबरा जाना) – प्रश्न-पत्र देखते ही शांति की अकल मारी गई ।
- अकल चरने जाना (सोच-समझकर काम न करना) – बना बनाया मकान तुड़वा रहे हो, इसे बनवाते समय क्या तुम्हारी अकल चरने गई थी ।
- अपनी खिचड़ी अलग पकाना (सबसे अलग रहना) – अपनी खिचड़ी अलग पकाने से कोई लाभ नहीं होता इसलिए सब से मिल-जुलकर रहना चाहिए ।
- अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना (अपनी तारीफ खुद करना) – वीर अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बनने वे तो वीरता दिखाते हैं.
- आँख उठाना (नुकसान पहुँचाना) – यदि तुमने मेरी ओर आँख उठा कर देखा तो मुझ से बुरा कोई न होगा ।
- आँखें चार होना (आमने-सामने होना) – पुलिस से आँखें चार होते ही चोर घबरा गया ।
- आँखें चुराना (नजर बचाना) – सुरेश ने कृष्ण से सौ रुपए उधार लिए थे । अब उसे देखते ही उस से आँखें चुराने लगता है ।
- आँखें दिखाना (क्रोध करना) – कक्षा में शोर सुनकर जैसे ही अध्यापक ने आँखें दिखाई कि सब चुप हो गए ।
- आँखें फेरना (प्रतिकूल होना) – मतलबी लोग अपना काम होते ही आँखें फेर लेते हैं ।
- आँखें खुलना (अकल आना) – कुणाल को समझाने से कोई लाभ नहीं है जब उसे ठोकर लगेगी तो उसकी आँखेंखुल जाएंगी ।
- आँखों का तारा (बहुत प्यारा) – राम दशरथ की आँखों के तारे थे ।
- आँखों में खटकना (बुरा लगना) – अनुशासनहीन बच्चे सब की आँखों में खटकते हैं ।
- आँच न आने देना (नुकसान न होने देना) – माँ अपनी सन्तान पर आँच नहीं आने देती ।
- कान खा लेना (किसी बात को बार-बार कहना) – सुचित्रा ने सुबह से पिकनिक पर जाने की रट लगाकर अपनी माता के कान खा लिए ।
- कान पर जूँ न रेंगना (कोई असर नहीं होना) – रजनी को चाहे कितना भी समझाते हो उसके कान पर जूँ नहीं रेंगती है.
- कान में पड़ना (सुनाई देना) – चिल्ला क्यों रहे हो, तुम्हारी बातें मेरे कान में पड़ रही हैं ।
- कानों को हाथ लगाना (तौबा करना) – कानों को हाथ लगाकर कहती हूँ कि अब कभी झूठ नहीं बोलूँगी।
- गड़े मुर्दे उखाड़ना (बीती हुई बातों को कहना) – रवि वर्तमान की बात नहीं करता, हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ता रहता है
- गागर में सागर भरना बड़ी बात थोड़े से शब्दों से कहना) – बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया है ।
- गुदड़ी का लाल (सामान्य परन्तु गुणी)
– सतीश एक गरीबी रिक्शेवालों का पुत्र था लेकिन उसने भारतीय प्रशासनिक
सेवा में प्रथम स्थान प्राप्त कर सिद्ध कर दिया है कि वह तो गुदड़ी का लाल
है ।
- घाव पर नमक छिड़कना (दुःखी को और दुःखी करना) – महंगाई के इस युग में निर्धन कर्मचारियों के भत्ते बन्द करना घाव पर नमक छिड़कना है ।
- घी के दिये जलाना (बहुत प्रसन्न होना) – अपने सैनिकों की विजय का समाचार सुनकर भारतवासियों ने घी के दिये जलाए ।
- चादर के बाहर पैर पसारना (आय से अधिक खर्च करना) – चादर के बाहर पैर पसारने वाले लोग सदा दुःखी रहते है ।
- चूड़ियाँ पहनना (कायर) – जो सैनिक युद्ध में जाने से डरते हैं, उन्हें घर में चूड़ियाँ पहन कर बैठना चाहिए ।
- चोली-दामन का साथ (सदा साथ रहना) – राम शाम चाहे कितना झगड़ा कर लें फिर भी उनमें चोली दामन का साथ है क्योंकि वे एक-दृस्रे के बिना रह नहीं सकते ।
- छोटा मुँह बड़ी बात (अपनी हैसियत से बढ्कर बात करना) – चींटी ने कहा मैं हाथी को मार दूँगी । उस का ऐसा कहना तो छोटा मुँह बड़ी बात है ।
- टस से मस न होना (परवाह नहीं करना) – शिव को कितना भी समझाओ कि बुरे लोगों का साथ नहीं करो, परन्तु वह तो टस से मस नहीं होता और उन्हीं लोगों का साथ करता है ।
- दिन फिरना (भाग्य बदलना) – कभी दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि सबके दिन फिरते हैं ।
- धूप में बाल सफेद न होना (अनुभवी होना) – देखो, मेरा कहना मान लो, मैंने धूप में बाल सफेद नहीं किए ।
- निन्यानवे के फेर में पड़ना (असमंजस में पड़ना) – निन्यानवे के फेर में पड़कर मनुष्य का जीवन दुखी हो जाता है ।
- पगड़ी उछालना (अपमान करना) – बड़ों की पगड़ी उछालना बुरी बात है ।
- पत्थर की लकीर होना (पक्की बात होना) – सरदार पटेल का कहना पत्थर की लकीर होता था ।
- पाँचों उंगलियाँ घी में होना (बहुत लाभ होना) – वस्तुओं के भाव चढ़ जाने से व्यापारियों की पाँचों उंगलियाँ घी में होती हैं ।
- भीगी बिल्ली बनना (भयभीत हो जाना) – पुलिस को देखते ही चोर भीगी बिल्ली बन गया ।
- भैंस के आगे बीन बजाना (समझाने पर भी कोई प्रभाव न होना) – नशे वाले को कितना भी नशा छोड़ने के लिए कहो उसके सामने सब कुछ कहना तो भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही होता है ।
- मिट्टी का माधो (कुछ न करने वाला) – जतिन बिलकुल मिट्टी का माधो है, उसे कितना ही समझाओ उस पर कोई असर नहीं होता ।
- फूँक-फूँक कर कदम रखना (सावधानी से काम करना) – आजकल सब काम करने से पहले फूँक-फूँक कर कदम रखने चहिए ।
- बगलें झोंकना (जवाब न दे सकना) – अध्यापक के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकने पर सुखबीर बगलें झाँकने लगा ।
- लगा में भंग डालना (आनंद में बाधा) – इतना अच्छा मैच हो रहा था कि वर्षा ने रंग में भंग डाल दिया ।
- लोहा लेना (डट कर टक्कर लेना) – चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस से लोहा लिया और बहुमत से विजय प्राप्त की ।
- श्री गणेश करना (प्रारम्भ करना) – परीक्षाओं के सिर पर आते ही रमन ने पड़ने का श्रीगणेश कर दिया ।
- हक्का-बक्का रहना (आश्चर्य चकित होना) – अपने शत्रु को अपने घर आया देखकर मनजीत हक्का-बक्का रह गया ।
- हाथ मलते रह जाना (पछताना) -सारा साल इन्द्रजीत पढ़ी नहीं । परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने पर हाथ मलते रह गई ।
- हाथों के तोते उड़ जाना (बहुत व्याकुल तथा शोकग्रस्त होना) -पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके हाथों के तोते उड़ गए ।
अपठित गद्यांश :-
एक पोस्टमैन ने
घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा, “चिट्ठी ले लीजिये”। अंदर से एक
बालिका की आवाज़ आई, “आ रही हूँ”। लेकिन तीन से चार मिनट तक काेई न आया ताे ने फिर कहा, “अरे भाई! घर में काेई है क्या, अपनी चिट्ठी ले लाे”। लड़की की फिर आवाज़ आई, “पोस्ट्मैन साहब, दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए, मैं आ रही हूँ”। “नहीं, मैं खड़ा हूँ, रजिस्टर्ड पत्र है, पावती पर तुम्हारे हस्ताक्षर चाहिए”।
करीबन छह से सात मिनट के बाद दरवाज़ा खुला। पोस्ट्मैन
इस देरी के लिए झल्लाया हुआ ताे था ही और उस पर चिल्लाने वाला था लेकिन,
दरवाज़ा खुलते ही वह चाैंक गया। एक अपाहिज कन्या जिसके पाँव नहीं थे, सामने
खड़ी थी।
पोस्टमैन चुपचाप पत्र देकर और उसके हस्ताक्षर लेकर चला गया। सप्ताह – दो सप्ताह में जब कभी उस लड़की के लिए डाक आती, पोस्टमैन एक आवाज़ देता और जब तक वह कन्या न आती तब तक खड़ा रहता। एक दिन लड़की ने पोस्टमैन काे नंगे पाँव देखा।
दिपावली नज़दीक आ रही थी। उसने सोचा पोस्टमैन काे क्या उपहार दूँ।
एक दिन जब पोस्टमैन डाक देकर चला गया, तब उस लड़की ने जहाँ मिट्टी में पोस्टमैन
के पाँव के निशान बने थे, उस पर काग़ज रखकर उन पाँवाें का चित्र उतार लिया।
अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाई से उस नाप के जूते मँगवा लिये।
दिपावली आई और उसके अगले दिन पोस्टमैन
ने गली के सब लाेगाें से ताे उपहार माँगा और साेचा कि अब इस बिटिया से
क्या उपहार लेना ? पर गली में आया हूँ ताे उससे मिल ही लूँ। उसने दरवाज़ा
खटखटाया। अंदर से आवाज़ आई, “काैन ?” पोस्टमैन उत्तर मिला। कन्या हाथ में एक उपहार लेकर आई और कहा, “अंकल, मेरी तरफ से दिपावली पर आपकाे भेंट है। “पोस्टमैन ने कहा” तुम मेरे लिए बेटी के समान हाे, तुमसे मैं उपहार कैसे लूँ?” कन्या ने आग्रह किया कि मेरी इस उपहार के लिए मना न करें।
ठीक है, कहते हुए पोस्टमैन
ने पैकेट ले लिया। कन्या ने कहा, “अंकल इस पैकेट काे घर ले जाकर खाेलना। घर
जाकर जब उसने पैकेट खाेला ताे विस्मित रह गया, क्योंकि उसमें एक जाेड़ी
जूते थे। उसकी आँखे भर आई। अगले दिन वह ऑफ़िस पहुँचा और पोस्टमास्टर से फरियाद की कि उसका तबादला फाैरन कर दिया जाए। पोस्टमास्टर ने कारण पूछा, ताे पोस्टमैन
ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखाें और रूंधे
कंठ से कहा, “आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूँगा। उस अपाहिज बच्ची ने
मेरे नंगे पाँवाें काे ताे जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊँगा
?”
सीख : संवेदनशीलता
का यह श्रेष्ठ दृष्टांत है। संवेदनशीलता यानि, दूसराें के दुःख दर्द काे
समझना, अनुभव करना और उसके दुःख-दर्द में भागीदारी करना, उसमें शरीक हाेना।
एक ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना इंसान अधूरा है।
प्रश्न : गद्यांश के प्रथम अनुच्छेद में किनके बीच क्या-क्या बातें हुईं ?
प्रश्न : दरवाज़ा खुलने के बाद पोस्ट्मैन की क्या प्रतिक्रिया हुई और
क्यों ?
प्रश्न : कन्या ने किसे ,क्या उपहार देने का विचार किया ? वह यह
उपहार कब और क्यों देना चाहती थी ? इसके लिये उसने क्या-
क्या किया ?
प्रश्न : उपहार देते समय कन्या ने पोस्टमैन से क्या कहा ? पोस्टमैन
ने कन्या को क्या उत्तर दिया ?
प्रश्न: उपहार देखकर पोस्टमैन की क्या प्रतिक्रिया हुई ? उसने क्या
करने का निश्चय किया ?
प्रश्न : प्रस्तुत गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखकर इससे प्राप्त
होने वाली सीख की चर्चा करें ।
निबंध लेखन [ ISC 2017 ]
विषय : पर्यटन एक बड़ा उद्योग बन गया है जिसके कारण सांस्कृतिक धरोहरें नष्ट हो रही हैं। इनके बचाव के लिए सुझाव दीजिए ताकि यह उद्योग फलता फूलता रहे। इस विषय के अन्तर्गत विस्तार से लिखें।
प्रस्तावना:
पर्यटन एक ऐसी यात्रा है जो
मनोरंजन या फुरसत के क्षणों का
आनंद उठाने के
उद्देश्यों से की जाती है।
विश्व
पर्यटन संघठन के अनुसार पर्यटक वे लोग हैं जो
"यात्रा करके अपने सामान्य वातावरण से बाहर के स्थानों में रहने जाते हैं, यह दौरा ज्यादा से ज्यादा एक साल के लिए
मनोरंजन, व्यापार, अन्य उद्देश्यों से किया जाता है, यह उस स्थान पर किसी ख़ास क्रिया से सम्बंधित नहीं होता है।
पर्यटन दुनिया भर में एक आरामपूर्ण गतिविधि के रूप में लोकप्रिय हो गया है।
चिन्तनात्मक
विकास:
पर्यटन का महत्त्व
प्रत्येक देश में स्वीकार किया जा चुका है । पाश्चात्य जगत् के प्रख्यात
विचारक मांटेन का कथन है कि पर्यटन के अभाव में कोई व्यक्ति पूर्ण
शिक्षित नहीं कहा जा सकता । आधुनिक युग में प्रत्येक शिक्षा-प्रणाली
में पर्यटन की योजना अनिवार्य रूप से सन्निविष्ट है ।पर्यटन की प्रेरणा राजनीतिक,
धार्मिक, सांस्कृतिक,
व्यावसायिक,
व्यापारिक आदि अनेक कारणों से प्राप्त हो सकती है । इनके अतिरिक्त मनोरंजन, अनुसंधान, अध्ययन, स्वास्थ्य-लाभ
अथवा अन्य व्यक्तिगत कारण भी पर्यटन के मूल में हो सकते हैं ।
सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए संसार के सभी सभ्य देशों के बीच नागरिकों की यात्रा अब नित्य की दिनचर्या है ।
भारत एक विशाल देश
है । इस बात का परिचय हमें यहाँ विद्यमान पर्यटन स्थलों से मिलता है ।
पर्यटन यहाँ एक वृहत्तर उद्योग के रूप मे विकसित हो रहा है ।
यद्यपि इस उद्योग में कुछ समय पूर्व मन्दी रही क्योंकि आतंकवाद के कारण भारतीय परिस्थितियाँ खराब थी तथापि अब यह पुन: पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है ।विदेशी पर्यटकों के लिए भारत में अनेक आकर्षण हैं । विगत
पंद्रह-सोलह वर्षों में विदेशी पर्यटकों की संख्या में ८० प्रतिशत की
वृद्धि हुई है, फिर भी अभी और वृद्धि की संभावना है । परंतु इसमें हमारे
सीमित साधन बाधक हैं, जिसके कारण यहाँ
पर्यटकों के ठहरने के स्थान, परिवहन, मनोरंजन आदि की सुविधाएँ बहुत
अधिक नहीं बढ़ाई जा सकतीं; किंतु संगठित प्रयत्न करके कम-से-कम समय में
उसे दूर किया जा सकता है । सरकार की ओर से कोलकाता, मुंबई, वाराणसी, उदयपुर, बंगलौर तथा अन्य
महत्त्वपूर्ण स्थानों में होटलों के निर्माण और
विस्तार की योजना है ।
प्रत्येक राज्य अथवा
देश का अपना एक विशेष मानवीय एवं भौतिकीय सौन्दर्य होता है । वस्तुत:
प्रत्येक देश का सौन्दर्य वहाँ का प्राकृतिक वातावरण, ऐतिहासिक स्थल,
संस्कृति एवं
सभ्यता होती है और इसी आकर्षण के वशीभूत ही लोग विभिन्न
देशों अथवा राज्यों में भ्रमण हेतु जाते हैं ।भारत में मेलों और त्योहारों की
प्राचीन परंपरा रही है । विदेशी पर्यटक इन्हें देखने को
लालायित रहते हैं । अंतरराष्ट्रीय पर्यटन वर्ष में इनका आयोजन पर्यटकों के
लिए विशेष रूप से आकर्षक रहा । केरल का ओणम (तिरुओणम्), चेन्नई का पोंगल,
मैसूर का दशहरा,
गुजरात का नवरात्र,
राजस्थान का गणगौर,
कोलकाता की
दुर्गा-पूजा, दिल्ली की होली आदि देश के विभिन्न भागों में मनाए जानेवाले ऐसे ही
त्योहार हैं ।दिल्ली के लालकिले में ‘ध्वनि और प्रकाश’ का कार्यक्रम संध्याकालीन
मनोरंजन प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है । अब आगरा,
गोलकुंडा, अजमेर, चित्तौड़गढ़ जैसे
स्थानों पर भी ऐसे कार्यक्रम करने की योजना है । गणतंत्र दिवस भी देश के
राष्ट्रीय त्योहारों में से एक है ।इस अवसर पर दिल्ली की गणतंत्र दिवस परेड पहले
से ही पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती आई
है । पर्यटन के महत्त्व पर २६ जनवरी, २००६ को परेड में एक विशेष झाँकी प्रस्तुत की गई थी । पर्यटन की सफलता सुविधाओं के विकास पर निर्भर करती है, साथ ही जनता का योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण है । जनता का आतिथ्य और शिष्टता पर्यटकों को आकर्षित करती है ।
वास्तव में यही पर्यटन है । पर्यटन को उद्योग का दर्जा देने के पश्चात् सरकार की मुख्य कोशिश रही है कि इससे अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा कमाई जाए । उसने उदार नीति अपनाई और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अनेक रियायतें दी ।
इन रियायतों व
सुविधाओं के मिलने पर अनेक उद्योगपति इस व्यापार की तरफ आकथित हुये और ?
उन्होंने संसाधनों
का अंधाधुंध दोहन शुरू कर दिया । परन्तु आज पर्यटन उद्योग
की यह कामधेनु पर्यावरण को चरने वाली साबित हो रही है ।
स्थिति यह हो गई है कि सरकार को स्वयं नहीं मालूम कि पर्यटन उद्योग सम्बंधी रियायतों की सीमा क्या होनी चाहिए । पर्यटन पर्यावरण के साथ ही स्थानीय संस्कृति और परम्परा भी नष्ट-भ्रष्ट हो रही है । इस प्रकार पर्यटन औपनिवेशिक शोषण का ही नया माध्यम बन गया है ।
उपसंहार:
हमारे पास पर्यटकों को आकर्षित करने की तकनीक ज़रूर है किन्तु इससे
भविष्य में उपजने वाली अनेकानेक समस्याओं का सामना करने
और उनसे निपटने की तकनीक उपलब्ध नहीं है । सवाल यह है कि इस समस्या से
उबरने के क्या उपाय हैं ? यह स्पष्ट हो चुका है कि इस समस्या के घनीभूत होने
के कारण क्या हैं ? वहाँ आवश्यकता इस बात की है कि पर्यटन के क्षेत्र में
विद्यमान समस्याओं को दूर करने हेतु ठोस कदम उठाये जायँ ताकि पर्यटन के विकास
के साथ-साथ मानव जीवन एवं पर्यावरण के साथ खिलवाड़ न हो सके ।
मानव जीवन में सर्वदा पर्यटन के प्रति एक विशेष आकर्षण विद्यमान रहा
है । प्राचीन समय में आवागमन के साधन दुर्लभ थे किन्तु पर्यटन के प्रति
लोगों की मनोवृत्ति विशेषत: रोमांचक थी । पर्यटन मात्र एक शब्द ही नहीं है, अपितु अपने
भीतर सम्पूर्णता को संजोये हुये है, चाहे वह संस्कृति-
सभ्यता हो, इतिहास, भूगोल, राष्ट्रीय
एकता, कला, उद्योग सम्बंधी समस्यायें
अथवा सम्भावनायें इत्यादि हों ।
अपठित गद्यांश : दिनांक - २६/१०/१७
एक समय की बात है, किसी नगर में एक जुआरी रहता था। वह बहुत नास्तिक
था। उसमें बहुत सारे अवगुण थे।
उसकी दोस्ती भी ऐसे ही लोगों से थी, जो बुरी आदतों के शिकार थे। एक बार जुआरी ने ढेर सारा पैसा जीता। उस
पैसे से उसने बहुत सारे सोने के गहने खरीदे, पनवाड़ी से पान का बीड़ा बनवाया, दो फूलों के हार खरीदे और
उसकी प्रेमिका जो कि एक वेश्या थी, उसके घर की तरफ चल पड़ा। वह जल्दी से जल्दी उसके घर पहुँचना चाहता था
इसलिए तेज़ी से दौड़ने लगा। अचानक उसका पैर एक नीची जगह पर पड़ा और वह गिर पड़ा। सिर में गहरी चोट आने के
कारण वह बेहोश हो गया। उसका सारा सामान धरती पर बिखर गया। जब उसे होश आया तो उसे
बहुत पछतावा हुआ कि एक वेश्या से मिलने के लिए वह क्यों इतना उतावला हो रहा
था। उसके मन में वैराग्य का भाव आ गया। उसने धरती पर बिखरा सारा सामान
एकत्रित किया। बहुत शुद्ध भाव से वह एक शिव मंदिर गया और सारा सामान शिवलिंग को अर्पित कर दिया। पूरे जीवन में उसने यही एक पुण्य का काम
किया। समय बीतने पर जब उसकी मौत हुई तो यमदूत उसे यमलोक ले गएँ। वहाँ
उसे चित्रगुप्त के सामने पेश किया गया। चित्रगुप्त ने कहा –
“ सुन मानव, तूने तो
जीवन भर पाप ही किए हैं। तुझे एक लंबे काल तक दुख भोगना पड़ेगा। ”
जुआरी ने कहा – “ आपकी बात सच है। सच में, मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। ये भी निश्चित है कि उन पापों की सज़ा मुझे
भुगतनी पड़ेगी लेकिन मैंने कभी तो कोई पुण्य का काम किया होगा। उस पर भी तो
विचार कीजिए। ” चित्रगुप्त ने उसके जीवन का लेखा-जोखा देखा। फिर वे बोले
तुमने मरने से पहले एक बार थोड़े से फूल और कुछ सामान भगवान शंकर को
अर्पित किए थे। इसी कारण तुम कुछ देर स्वर्ग जाने के अधिकारी बन गए हो। तुम्हें तीन घड़ी
के लिए स्वर्ग का सिंहासन मिलेगा। अब तुम बताओ पहले अपने पुण्य का
फल चाहते हो या अपने पापों का। जुआरी बोला- “ हे देव नर्क में तो मुझे लंबे
समय तक रहना है। पहले मुझे स्वर्ग का सुख भोगने के लिए भेज दीजिए। ” तब
यमराज की आज्ञा से उस जुआरी को स्वर्ग में भेज दिया गया। देवगुरु बृहस्पति ने
इन्द्र को समझाया कि तुम तीन घड़ी के लिए अपना यह सिंहासन इस जुआरी के
लिए छोड़ दो। तीन घड़ी के बाद यहाँ आ जाना। इंद्र ने वैसा ही किया। इंद्र के जाते ही
वह जुआरी स्वर्ग का राजा बन गया। उसने मन में विचार किया कि अब भगवान
शंकर की शरण में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। उसने खुलकर चीज़ों का
दान किया। उसने इंद्र का ऐरावत महर्षिं अगस्त्य को दान किया। कामधेनु गाय
महर्षि वशिष्ठ को दान कर दी। चिंतामणि रत्नमाला महर्षि मालव को भेंट कर दी। कल्प वृक्ष
कौडिण्य मुनि को दान कर दिया। तीन घड़ी के बाद उसे वापस नर्क भेज दिया गया।
जब इंद्र लौटकर आए तो सारी अमरावती ऐश्वर्य विहीन हो गई थी। वे बृहस्पति जी
को लेकर यमराज के पास पहुँचे और क्रोधित हुए। वे बोले उस जुआरी को राजा
बनाकर आपने गलत काम किया। उसने तो वहाँ की सारी बहुमूल्य वस्तुएँ दान में दे डालीं।
यह सुनकर धर्मराज ने उत्तर दिया- “ देवराज आप बूढ़े हो गए हैं, लेकिन अभी तक आपकी राज्य की विषय आसक्ति दूर नहीं हुई है। उस जुआरी का एक पुण्य सौ यज्ञों से भी अधिक महान है, क्योंकि उसके किसी पुण्य में कुछ पाने की इच्छा नहीं थी। अब
आपके लिए यही ठीक होगा कि आप ऋषियों के चरण पकड़कर अपने रत्नादि वापस माँग लें। ”
इधर जुआरी का मन भी बदल गया। उसने भगवान शंकर की खूब आराधना
की। भगवान शिव की कृपा से उसे फिर
से सुख भोगने का अवसर मिला। उस जुआरी ने अगले जन्म में दानव कुल में जन्म लिया। दानव कुल में जन्मा वह
पूर्व जन्म का पापी जुआरी और कोई नहीं महादानी विरोचन का पुत्र बलि था, जो अपने पिता से भी बढ़कर
दानी हुआ। भगवान विष्णु ने जब वामन के रूप में उससे तीन पग धरती दान में माँगी तो उसने अपना सब कुछ दान कर दिया।
दोस्तो ! स्वार्थ से किए गए
सौ कामों से बेहतर बिना स्वार्थ से किए गए एक काम का परिणाम होता है। ज़िंदगी का एक
मात्र लक्ष्य भगवान की भक्ति है। किसी के भी जीवन को सुख या दुख से भरपूर, उस इंसान के अपने ही कर्म बनाते हैं।
प्रश्न :-
(i) पैसा जीतने पर जुआरी ने
क्या-क्या खरीदा ? वह तेज़ी से क्यों दौड़ने
लगा ?
(ii) होश में आने पर जुआरी
को कैसा महसूस हुआ ? तत्पश्चात उसने क्या
किया ?
(iii) स्वर्ग का राजा बनने पर जुआरी ने किसे, क्या-क्या दान में दिया? ?
(iv) इंद्र के
क्रोधित होने पर धर्मराज ने उनसे क्या कहा ?
परीक्षाओं में बढ़ती नकल की प्रवृत्ति [ निबंध ] :
भूमिका :
हर वर्ष करोड़ों की संख्या में विद्यार्थी बोर्ड की परीक्षा देते हैं।
स्कूलों व् कोलेजों में बहुत प्रकार की परीक्षाएं आयोजित करवाई जाती हैं।
अगर किसी अच्छे स्कूल या कॉलेज में दाखिला लेना हो तो परीक्षा देनी पडती
है, किसी प्रकार की नौकरी प्राप्त करनी हो तो परीक्षा देनी पडती है, किसी
कोर्स का दाखिला लेना हो तो परीक्षा देनी पडती है।
परीक्षाओं
के अनेक रूप होते हैं। लेकिन हम केवल एक ही परीक्षा से परिचित हैं जो की
लिखित रूप से कुछ प्रश्नों के उत्तर देने से पूरी होती है। खुदा ने अब्राहम
की परीक्षा ली थी। परीक्षा के नाम से फरिश्ते घबराते हैं पर मनुष्य को
बार-बार परीक्षा देनी पडती है।
परीक्षा क्या है : परीक्षा
को वास्तव में किसी की योग्यता, गुण और सामर्थ्य को जानने के लिए प्रयोग
किया जाता है। शुद्ध -अशुद्ध अथवा गुण-दोष को जांचने के लिए परीक्षा का
प्रयोग किया जाता है। हमारी शिक्षा प्रणाली का मेरुदंड परीक्षा को माना
जाता है। सभी स्कूलों और कॉलेजों में जो कुछ भी पढ़ाया जाता है उसका
उद्देश्य विद्यार्थियों को परीक्षा में सफल कराने के लिए किया जाता है।
स्कूलों
में जो सामान्य रूप से परीक्षा ली जाती हैं वह वार्षिक परीक्षा होती है।
जब वर्ष के अंत में परीक्षाएं ली जाती हैं तब उनकी उत्तर पुस्तिका से उनकी
क्षमता का पता चलता है। विद्यार्थियों की योग्यता को जांचने के लिए अभी तक
कोई दूसरा उपाय नहीं मिला है इस लिए वार्षिक परीक्षा से ही उनकी योग्यता का
पता लगाया जाता है। परीक्षाओं से विद्यार्थियों की स्मरन शक्ति को भी
जांचा जा सकता है।
परीक्षा का वर्तमान स्वरूप :
तीन घंटे से भी कम समय में विद्यार्थी पूरी साल पढ़े हुए और समझे हुए विषय
को हम कैसे जाँच -परख सकते हैं ? जब प्रश्न -पत्रों का निर्माण वैज्ञानिक
तरीके से नहीं होता तो विद्यार्थियों की योग्यता को जांचना त्रुटिपूर्ण रह
जाता है। जब परीक्षा के भवन में नकल की जाती है तो परीक्षा-प्रणाली पर एक
प्रश्न चिन्ह लग जाता है। प्रश्न पत्रों का लीक हो जाना आजकल आम बात हो गई
है। हमारी परीक्षा -प्रणाली की विश्वसनीयता लगातार कम होती जा रही है।
नकल क्यूँ : जिस
प्रकार राम भक्त हनुमान को राम का ही सहारा रहता था उसी तरह कुछ बच्चों को
बस नकल का ही सहारा रहता है। पहले समय में बच्चों को नकल करने के लिए कला
का सहारा लेना पड़ता था लेकिन आजकल तो अध्यापक ही बच्चों को नकल करवाने के
लिए चारों तरफ फिरते रहते हैं।
नकल
करना और करवाना अब एक पैसा कमाने का माध्यम बन गया है। अगर नकल करवानी है
तो माता-पिता के पास धन होना जरूरी हो गया है। कुछ विद्यार्थी दूसरों के
लिए आज भी नकल करवाने और चिट बनाने का काम करते रहते हैं। बहुत से
विद्यार्थी तो ब्लू-टूथ और एस० एम० एस० के द्वारा भी नकल करते रहते हैं।
बच्चों के मूल्यांकन में भी बहुत गडबडी होने लगी है।
नकल के लिए सुझाव : कोई भी परीक्षा प्रणाली विद्यार्थी के चरित्र के गुणों का मूल्यांकन
नहीं करती है। जो लोग चोरी करते हैं हत्याएँ करते हैं वे भी जेलों में
बैठकर परीक्षा देते और प्रथम श्रेणी प्राप्त करते हैं। जो परीक्षा प्रणाली
केवल कंठस्थ करने पर जोर देती है वो विद्यार्थियों की योग्यता का मूल्यांकन
नहीं कर सकती। सतत चलने वाली परीक्षा प्रणाली की स्कूलों और कॉलेजों में
विकसित होने की जरूरत है। विद्यार्थी के ज्ञान , गुण और क्षमता का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
उपसंहार :
आजकल बहुत से लोगों को परीक्षाएं देनी पडती हैं। अगर आपको कोई भी कार्य
करना है तो पहले आपको परीक्षा देनी पडती है | कुछ लोग परीक्षा देने के
परिश्रम से बचने के लिए नकल करते हैं तो कुछ लोग पैसे देकर नकल करते हैं
लेकिन ऐसा कब तक चलेगा। आगे चलकर जब उन्हें कोई व्यवसायिक कार्य या फिर
नौकरी पाने के लिए फिर भी परीक्षा देनी ही पड़ेगी।
नैतिक शिक्षा [ निबंध ] :
भूमिका :
मनुष्य जन्म से ही सुख और शांति के लिए प्रयत्न करता है। जब से सृष्टि का
आरंभ हुआ है वो तभी से ही अपनी उन्नति के लिए प्रयत्न करता आ रहा है लेकिन
उसे पूरी तरह शांति सिर्फ शिक्षा से ही मिली है। शिक्षा के अस्त्र को अमोघ
माना जाता है। शिक्षा से ही मनुष्य की सामाजिक और नैतिक उन्नति हुई थी और
वह आगे बढने लगा था।
मनुष्य
को यह अनुभव होने लगा की वह पशुतुल्य है। शिक्षा ही मनुष्य को उसके
कर्तव्यों के बारे में समझती है और उसे सच्चे अर्थों में इंसान बनाती है।
उसे खुद का और समाज का विकास करने का भी अवसर देती है।
अंग्रेजी शिक्षण पद्धति का प्रारंभ : मनुष्य
की सभी शक्तियों के सर्वतोन्मुखी विकास को ही शिक्षा कहते हैं। शिक्षा से
मानवीय गरिमा और व्यक्तित्व का विकास होता है। नैतिक शिक्षा का अर्थ होता
है कि बच्चे की शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियों का सर्वतोन्मुखी विकास
हो। यह दुःख की बात है शिक्षा भारत में अंग्रेजी की विरासत है। अंग्रेज
भारत को अपना उपनिवेश मानते थे। अंग्रेजों ने भारतीयों को क्लर्क और मुंशी बनाने की चाल चली।
उन्हें
यह विश्वास था कि इस शिक्षा योजना से एक ऐसा शिक्षित वर्ग बनेगा जिसका
रक्त और रंग तो भारतीय होगा लेकिन विचार , बोली और दिमाग अंग्रेजी होगा। इस
शिक्षा प्रणाली से भारतीय केवल बाबु ही बनकर रह गये। अंग्रेजों ने भारतीय
लोगों को भारतीय संस्कृति से तो दूर ही रखा लेकिन अंग्रेजी संस्कृति को
उनके अंदर गहराई से डाल दिया। यह दुःख की बात है की स्वतंत्रता प्राप्त
होने के बाद भी अब तक अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व बना हुआ है।
प्राचीन शिक्षा पद्धति : प्राचीन
कल में भारत को संसार का गुरु कहा जाता था। भारत को प्राचीन समय में सोने
की चिड़िया कहा जाता था। प्राचीन समय में ऋषियों और विचारकों ने यह घोषणा की
थी कि शिक्षा मनुष्य वृत्तियों के विकास के लिए बहुत आवश्यक है। शिक्षा से
मानव की बुद्धि परिष्कृत और परिमार्जित होती है।
शिक्षा
से मनुष्य में सत्य और असत्य का विवेक जागता है। भारतीय शिक्षा का
उद्देश्य मानव को पूर्ण ज्ञान करवाना, उसे ज्ञान के प्रकाश की ओर आगे करना
और उसमें संस्कारों को जगाना होता है। प्राचीन शिक्षा पद्धति में नैतिक
शिक्षा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। पुराने समय में यह शिक्षा नगरों
से दूर जंगलों में ऋषियों और मुनियों के आश्रमों में दी जाती थी।
उस समय छात्र पूरे पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और और अपने गुरु के चरणों की सेवा करते हुए विद्या का अध्ययन
करते थे। इन आश्रमों में छात्रों की सर्वंगीण उन्नति पर ध्यान दिया जाता
था। उसे अपनी बहुमुखी प्रतिभा में विकास करने का अवसर मिलता था। विद्यार्थी
चिकित्सा, नीति, युद्ध कला, वेद सभी विषयों सम्यक होकर ही घर को लौटता था।
नैतिक शिक्षा का अर्थ : नैतिक
शब्द नीति में इक प्रत्यय के जुड़ने से बना है। नैतिक शिक्षा का अर्थ होता
है -नीति संबंधित शिक्षा। नैतिक शिक्षा का अर्थ होता है कि विद्यार्थियों
को नैतिकता, सत्यभाषण, सहनशीलता, विनम्रता, प्रमाणिक सभी गुणों को प्रदान
करना। आज हमारे स्वतंत्र भारत में सच्चरित्रता की बहुत बड़ी कमी है। सरकारी
और गैर सरकारी सभी स्तरों पर लोग हमारे मनों में विष घोलने का काम कर रहे
हैं।
इन
सब का कारण हमारे स्कूलों और कॉलेजों में नैतिक शिक्षा का लुप्त होना है।
मनुष्य को विज्ञानं की शिक्षा दी जाती है उसे तकनीकी शिक्षण भी दिया जाता
है लेकिन उसे असली अर्थों में इन्सान बनना नहीं सिखाया जाता है। नैतिक
शिक्षा ही मनुष्य की अमूल्य संपत्ति होती है इस संपत्ति के आगे सभी संपत्ति
तुच्छ होती हैं। इन्हीं से राष्ट्र का निर्माण होता है और इन्हीं से देश
सुदृढ होता है।
नैतिक शिक्षा की आवश्यकता : शिक्षा
का उद्देश्य होता है कि मानव को सही अर्थों में मानव बनाया जाये। उसमें
आत्मनिर्भरता की भावना को उत्पन्न करे, देशवासियों का चरित्र निर्माण करे ,
मनुष्य को परम उरुशार्थ की प्राप्ति कराना है लेकिन आज यह सब केवल पटकी
पूर्ति के साधन बनकर रह गये हैं। नैतिक मूल्यों का निरंतर ह्रास किया जा
रहा है।
आजकल
के लोगों में श्रधा जैसी कोई भावना ही नहीं बची है। गुरुओं का आदर और माता
-पिता का सम्मान नहीं किया जाता है। विद्यार्थी वर्ग ही नहीं बल्कि पूरा
समाज में अराजकता फैली हुई है। ये बात खुद ही पैदा होती है कि हमारी शिक्षण
व्यवस्था में आखिर कार क्या कमी है।
कुछ
लोग इस बात पर ज्यादा बल दे रहे हैं कि हमारी शिक्षा प्रणाली में नैतिक
शिक्षा के लिए भी जगह होनी चाहिए। कुछ लोग इस बात पर बल दे रहे हैं कि
नैतिक शिक्षा के बिना हमारी शिक्षा प्रणाली अधूरी है।
उपसंहार : आज
के भौतिक युग में नैतिक शिक्षा बहुत ही जरूरी है। नैतिक शिक्षा ही मनुष्य
को मनुष्य बनाती है। नैतिक शिक्षा से ही राष्ट्र का सही अर्थों में
निर्माण होता है। नैतिक गुणों के होने से ही मनुष्य संवेदनीय बनता है। आज
के युग में लोगों के सर्वंगीण विकास के लिए नैतिक शिक्षा बहुत ही जरूरी है।
नैतिक शिक्षा से ही कर्तव्य निष्ठ नागरिकों का विकास होता है।
मुंशी प्रेमचंद [ निबंध ]
भूमिका :
हमारे हिंदी साहित्य को उन्नत बनाने के लिए अनेक कलाकारों ने योगदान दिया
है। हर कलाकार का अपना महत्व होता है लेकिन प्रेमचन्द जैसा कलाकार किसी भी
देश को बड़े सौभाग्य से मिलता है। अगर उन्हें भारत का गोर्की कहा जाये तो
इसमें कुछ गलत नहीं होगा। मुंशी प्रेमचन्द जी के लोक जीवन के व्यापक चित्रण
और सामाजिक समस्याओं के गहन विश्लेषण को देखकर कहा जाता ही कि प्रेमचन्द
जी के उपन्यासों में भारतीय जीवन के मुंह बोलते हुए चित्र मिलते हैं।
प्रिय लेखक : मुंशी
प्रेमचन्द जी हमारे प्रिय लेखक हैं। प्रेमचन्द जी ने एक दर्जन उच्चकोटि के
उपन्यास लिखें हैं और तीन सौ से भी अधिक कहानियाँ लिखकर हिंदी साहित्य को
समृद्ध बनाया है। बहुत से उपन्यासों में गोदान, कर्म भूमि और सेवासदन सभी
प्रसिद्ध हैं। कहानियों में पूस की रात और कफन बहुत ही मार्मिक हैं। उनकी
कहानियाँ जन जीवन की मुंह बोलता हुआ चित्र प्रस्तुत करते हैं।
प्रिय लगने का कारण : साहित्य
में अशलीलता और नग्नता के वे कट्टर विरोधी हैं। प्रेमचन्द जी का मानना है
कि साहित्य समाज का चित्रण करता है लेकिन साथ ही समाज के आगे एक ऐसा आदर्श
प्रस्तुत करता है जिससे लोग अपने साहित्य समाज के लोग अपना चरित्र ऊँचा उठा
सकते हैं। प्रेमचन्द जी के उपन्यासों के अनेक पात्र होरी , धनिया , सोफी ,
निर्मला , जालपा सभी आज भी जीते जागते पात्र लगते हैं।
गरीबों
के जीवन पर लिखने से उन्हें विशेष सफलता मिली है। प्रेमचन्द जी की भाषा
सरल है लेकिन मुहावरेदार है। भारत में हिंदी का प्रचार करने में प्रेमचन्द
के उपन्यासों ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने ऐसी भाषा का
प्रयोग किया जिसे लोग समझते और जानते थे। इसी वजह से प्रेमचन्द जी के अन्य
लेखकों की तुलना में अधिक उपन्यास बिके थे।
परिचय : मुंशी
प्रेमचन्द जी का जन्म माँ भारती में वाराणसी के समीप लमही गाँव में सन
1880 ई० को हुआ था। उनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए उनका
बचपन बहुत ही कठिनाईयों से बिता था। बहुत ही मुश्किल से बी० ए० की और फिर
शिक्षा विभाग में भी नौकरी की लेकिन उनकी स्वतंत्र विचारधारा की वजह से
उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उन्होंने जो नवाब राय के नाम से पुस्तक लिखी थी उसे
अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था। इसके बाद उन्होंने प्रेमचन्द के नाम से
लिखना शुरू कर दिया।
साहित्य : प्रेमचन्द
जी को आदर्शवादी यथार्थवादी साहित्यकार कहा जाता है। गोदान को प्रेमचन्द
जी का ही नहीं बल्कि सारे संसार का सर्वोत्तम उपन्यास माना जाता है। गोदाम
में जो कृषक का मर्मस्पर्शी चित्र दिया गया है उसके बारे में सोचकर आज भी
मेरा दिल दहल जाता है। सूद-खोर बनिये, जागीरदार, सरकारी कर्मचारी सभी का
भेद खोलकर प्रेमचन्द जी ने अपने साहित्य को शोषित और दुखी लोगों का
प्रवक्ता बना दिया है।
उपसंहार : यह
बहुत ही खेद की बात है कि हिंदी के ये महान कलाकार उम्र भर आर्थिक
समस्याओं से घिर रहा था। पूरी उम्र परिश्रम करने की वजह से स्वास्थ्य गिरने
लगा और सन 1936 में इनकी मृत्यु हो गई थी। उनका साहित्य भारतीय समाज में
जीवन का दर्पण माना जाता है। उनके साहित्यिक आदर्श बहुत बड़ा मूल्य रखते
हैं।
नोटबंदी [ निबंध ]
भूमिका :
नोटबंदी में जब पुराने नोटों और सिक्कों को बंद करके नए नोट और सिक्के
चलाये जाते हैं उसे नोटबंदी कहते हैं। नोटबंदी एक प्रक्रिया होती है जिसमें
मुद्रा का क़ानूनी दर्जा निकाल दिया जाता है और यह सिक्कों में भी लागु
होता है। पुराने नोटों और सिक्कों को बदल दिया जाता है और उनकी जगह पर नए
नोटों और सिक्कों को लागु कर दिया जाता है।
जब
नोटबंदी के नए नोट समाज में आ जाते हैं तो पुराने नोटों की कोई कीमत नहीं
रहती है। पुराने नोटों को बैंकों और एटीएम से बदलवाया जाता है। नोटों को
बदलवाने के लिए समय निर्धारित किया जाता है। नोटों को बैंक की मदद से
बदलवाया जा सकता हैं।
नोटबंदी का कारण :
भ्रष्टाचार , कालाधन , नकली नोट , मंहगाई और आतंकवादी गतिविधियों पर काबू
पाने के लिए ही नोटबंदी का उपयोग किया जा सकता है। जो लोग भ्रष्टाचारी होते
हैं वो काले धन को कैश में छुपाकर रखते हैं जिससे वो उस पर लगने वाले कर
से बच सकें।
इसी
धन को आतंकवादी कारणों के लिए प्रयोग किया जाता है। नोटबंदी की वजह से ही
भ्रष्ट और आतंकवादी लोगों को पुराने नोटों को इस्तेमाल करने की वजह से ही
पकड़ा गया है। कभी-कभी तो नकद लेन-देन को हितोत्साहित करने के लिए भी
नोटबंदी का सहारा लिया जाता है।
भारत में नोटबंदी :
हमारा भारत पहला देश नहीं है जहाँ पर नोटबंदी हुई है। भारत में पहली बार
वर्ष 1946 में 500, 1000, और दस हजार के नोटों की नोटबंदी की गई थी।
मोरारजी में भी जनवरी 1978 में 1000, 5000 , और 10000 के नोटों को बंद किया
गया था |
भारत
में 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार ने भी 2005 से पहले के 500 के नोटों को
बदलवा दिया था। जब यूरोप यूनियम बना तब उन्होंने यूरो नाम की नई करेंसी
चलाई थी तब सारे पुराने नोट बैंकों में जमा करवाए गये थे। यूरोप में हुई इस
नोटबंदी ने यूरोप में बवाल मचा दिया था लेकिन शायद भारत में हुआ उतना
नहीं।
जिम्बाब्वे
में भी महंगाई से बचने के लिए 2015 में नोटबंदी का प्रयोग किया गया था।
भारत में पहले भी नोटबंदी हुई थी परन्तु वह इतनी प्रसिद्ध नहीं हुई थी। आज
हम छोटे सिक्कों जैसे 5 , 10 , 20 , 50 ,100 पैसों का प्रयोग नहीं करते हैं
उन्हें भी बंद किया गया था।
लेकिन
500 और 1000 नोटों की नोटबंदी की कहानी ही अलग है। इन दो करेंसी ने भारतीय
अर्थव्यवस्था के 86% भाग को काबिज किया था यही नोट बाजार में सबसे अधिक
चलते थे। इसी वजह से इसका इतना बड़ा बवाल और परिणाम हुआ।
8 नवम्बर , 2016 की नोटबंदी :
8 नवम्बर , 2016 को 8:15 बजे 500 और 1000 के नोटों की नोटबंदी की घोषणा की
गई। लोगों को आशा थी प्रधानमंत्री जी भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाली
नोक-झोक की बात करेंगे लेकिन नोटबंदी की घोषणा ने तो सभी को हिला कर रख
दिया।
कुछ
लोग ने प्रधानमंत्री जी का समर्थन किया तो कुछ लोगों ने प्रधानमंत्री जी
का विरोध किया और नोटबंदी की ख़ारिज करने की मांग की लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
जिन लोगों ने काले धन को छिपा कर रखा हुआ था वो सुनारों के पास जाकर उस धन
से सोना खरीदने लगे। नोटबंदी की घोषणा के अगले दिन से ही बैंकों और एटीएम
के बाहर लाईने लगनी शुरू हो गयीं।
सरकार
ने काला धन निकालने के लिए बहुत प्रयत्न किये जैसे – बैंकों में नोटों को
बदलवाने की संख्या में घटा-बढ़ी की गई , नए-नए कानून बनाए गये , नियमों को
सख्ती से लागु किया गया। सरकार ने अपने निर्णय को सही साबित करने के लिए 50
दिन का समय माँगा। पुराने नोटों को बदलने के लिए 500 और 2000 के नए नोटों
को चलाया गया।
विपक्षी पार्टी का विरोध :
प्रधानमंत्री जी की नोटबंदी की योजना को विपक्ष पार्टी ने असफल और देश के
पिछड़ने की वजह बताया लेकिन प्रधानमंत्री जी अपने फैसले पर अड़े रहे। विपक्षी
पार्टी इस तरह से नोटबंदी का विरोध कर रही थी मानो उन्होंने अपने पास बहुत
सारा काला धन छुपा कर रखा हुआ है।
पूरी
विपक्ष पार्टी ने नोटबंदी की योजना का विरोध किया और उनके खिलाफ बहुत से
कदम भी उठाये जैसे – मोर्चे , प्रदर्शन , रोष प्रकट करना आदि लेकिन फिर भी
नोटबंदी को रोका नहीं जा सका। नोटबंदी के कारण ही अनेकता में एकता का भाव
सार्थक हुआ था।
नोटबंदी में मिडिया :
नोटबंदी में मिडिया का बहुत ही अच्छा रोल था। कुछ मिडिया वाले नोटबंदी के
पक्ष में थे तो कुछ नोटबंदी के विरोध में थे। कुछ खबरों में लोगों को
लाईनों में खड़े होकर मजे लेते हुए देखा गया तो कुछ लोगों को नोटबंदी की वजह
से आत्महत्या करते भी देखा गया।
कुछ
खबरों के मुताबिक लगभग सौ लोगों ने अपनी जान लाईनों में खड़े होकर गंवा दी।
मिडिया में यह भी बताया गया कि लोग जब फ़िल्में देखने के लिए टिकट खरीदने
के लिए बड़ी-बड़ी लाईने लगाते है तब लोगों को कोई समस्या नहीं होती है लेकिन
नोटबंदी के हानिकारक प्रभावों को लोगों ने बहुत ही बढ़ा-चढा कर बताया है।
नोटबंदी के लाभ :
सभी जानते हैं कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर नोटबंदी की हानियाँ
हैं तो कुछ फायदे भी हैं। अगर नोटबंदी नहीं होती तो भारत में कभी भी आर्थिक
जागरूकता नहीं फैलती और शायद जीएसटी के बिल और इसका कार्यान्वयन करने में
बहुत तकलीफ होती।
नोटबंदी
की वजह से आम लोगों को आर्थिक कर और उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास
हुआ है यह बहुत बड़ी बात है। नोटबंदी के होने से सभी ओग ऑनलाईन , डिजिटल
पेमेंट करने लगे हैं। यहाँ तक की चायवाला , किरानेवाला , जेरॉक्स ,
प्रिंटिंग वाला भी अब ओनलाईन भुगतान करवाता है।
यह
नोटबंदी में एक बहुत ही बड़ी उपलब्धी है। नोटबंदी के कारण ही लोगों में
भाईचारे की भावना का विकास हुआ। अमीर लोगों को अपने दोस्त , रिश्तेदार ,
माँ , बाप याद आने लगे और उनमें मानवता का भाव उत्पन्न हुआ उस समय उन्हें
देखकर ऐसा लगता था जैसे मानवता को दुबारा से जिन्दा कर दिया गया हो।
नोटबंदी
की वजह से ही हमें लोगों की बुद्धिमता देखने का मौका मिला। लोगों ने अपने
काले धन को छुपाने के लिए नए-नए तरीकों को अपनाया। कुछ लोगों का यह भी
मानना है कि नोटबंदी की वजह से अर्थव्यवस्था कुछ समय के लिए प्रभावित जरुर
हुई है लेकिन बाद में इसके परिणाम बहुत अच्छे निकलेंगे।
नोटबंदी
की वजह से नकली नोट छापने का काम भी बंद हो गया है जिसकी वजह से देश से
नकली नोटों को बहुत बड़ी मात्रा में निकाल दिया गया है। नोटबंदी की वजह से
ही कश्मीर भी शांत हो गया। भारत देश की सबसे बड़ी समस्या है काला धन जिसे
खत्म करने के लिए नोटबंदी सबसे अच्छा उपाय है।
नोटबंदी
की वजह से नौकरियां भी स्थिर हो जाएँगी जिससे लोगों को बेरोजगार होने का
डर नहीं सताएगा। नोटबंदी होने की वजह से ही कैशलेस को बढ़ावा मिलता है।
नोटबंदी एक ऐसा साधन है जिससे आतंकवाद पर नियन्त्रण किया जा सकता है।
नोटबंदी की हानि :
नोटबंदी से बहुत से प्रश्न उठते हैं लेकिन कुछ हद तक काबू में जरुर
आयेंगे। इन सब से एक बहुत बड़ी हानि हुई है इससे आम आदमियों की रोजमर्रा की
जिंदगी में तकलीफ हुई है। बैंकों और एटीएम के सामने घंटों लाईनों में खड़े
रहना , अस्पताल का बिल ,बिजली का बिल , किराये की समस्या , और बहुत सी
समस्याओं का सामना करना पड़ा।
इन
सब तकलीफों का सामना करने के बाद भी सारे देश ने मोदी जी के बड़े और
निर्णायक फैसलों में साथ दिया। बाहरी देशों ने भी इस फैसले के लिए मोदी जी
की सराहना की है। उन लोगों को लगता है कि सरकार कुछ कदम तो उठा रही है
जिससे भ्रष्टाचार खत्म हो सके। इससे भारत के विकास में बहुत मदद मिलेगी।
आज
के समय में नोटबंदी पर बहुत सवाल उठाये जा रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है
कि नोटबंदी फ़ैल हुई है। यह एक स्कैम है जिसमें काले धन को सफेद किया जाता
है। कुछ लोगों का कहना है कि नोटबंदी से कोई फायदा नहीं हुआ है सिर्फ
नुकसान हुआ है। भारत की आर्थिक प्रगति दर 7.5 से कम होकर 6.3 हो गई है।
नए
नोटों को छापने में बहुत पैसा खर्च हुआ लेकिन आतंकवादी फंडिंग अब तक चालू
हैं। हम उन आरोपों को टाल भी नहीं सकते हैं शायद नोटबंदी से जिस स्तर की
अपेक्षाएं की गई थीं वे हासिल नहीं हुईं। सरकार का कहना है कि लगभग चार सौ
रुपए के काले धन ने बैंको में अपनी जगह बना ही ली है।
नोटबंदी के परिणाम :
जो काला धन भ्रष्टाचारी लोगों ने 500 और 1000 के नोटों के रूप में नकद रखा
था इस समय में वे एक कागज मात्र बन कर रह गया है उसकी कोई भी कीमत नहीं रह
गई है। नोटबंदी के कारण भ्रष्टाचारियों को अपना छिपाया हुआ काला धन सरकार
को समर्पित करना पड़ा , कई लोगों ने इन्हें जला दिया और कईयों ने तो इसे
फेंक दिया। जो नोट जाली थे वे बाजार में किसी भी काम के नहीं रहे थे।
उपसंहार :
नोटबंदी और जीएसटी यह बहुत ही बड़े फैसले हैं इतिहास में शायद ही ऐसे बड़े
फैसले कभी लिए गये हैं। अगर भारत को आगे बढ़ाना है तो इससे भी बड़े-बड़े कदम
उठाने होंगे। हर चीज में कुछ गुण होते हैं तो कुछ कमियां भी होती हैं लेकिन
यह बहाना नहीं होना चाहिए।
कभी-कभी
कुछ अच्छी चीजें करने के लिए हिम्मत रखना , उसके लिए लाखों लोगों का भरोसा
जीतना बहुत ही बड़ी बात होती है। हमें ऐसे बड़े फैसलों पर सरकार की मदद करनी
चाहिए और खराब परिणाम पर सवाल भी उठाने चाहिए। सरकार और जनता दोनों को
मिलकर देश को आगे ले जाना होगा यही जनतंत्र होता है। देश की जनता और सरकार
इसके बहुत बड़े पहलू होते हैं।
निबंध लेखन :विषय :'प्रकृति माँ के समान हमारा पालन-पोषण ही नहीं करती बल्कि एक कुशल शिक्षिका की भाँति हमें जीवन की महत्त्वपूर्ण शिक्षा भी देती है।' प्रकृति से मिलने वाली कुछ सीखों का वर्णन करते हुए लिखिए कि किस प्रकार इन सीखों को अपनाकर हम अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं।प्रकृति मातृ स्वरूपा अर्थात् प्रकृति मॉं के समान है। भारतीय संस्कृति में प्रकृति को माता माना गया है एवं माँ रहित जीवन की कल्पना हेतु कहा गया है –नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति:।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया…
व्यापक अर्थ में प्रकृति अर्थात् ब्रह्मांड एवं ब्रह्मांड अर्थात् जीवन, फिर कैसे हम इस प्रकृति, इस ब्रह्मांड से इतने विरक्त हो सकते हैं कि हमारा अस्तित्व ही संकट में आ जाए? कैसे हम एक माँ के बिना उसकी संतान की परिकल्पना कर सकते हैं? माँ अर्थात् जीवन, संतान अर्थात आदाता। जिस संबंध में माँ सदैव देने के लिए तत्पर रहती हो तथा संतान लेने के लिए तो क्या उस संतान का दायित्व नहीं बनता कि वह अपनी माँ को और इस संबंध को सर्वोपरि माने, उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सतत प्रयास करता रहे।
प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य के लिए धरती उसके घर का आंगन, आसमान छत, सूर्य-चांद-तारे दीपक, सागर-नदी पानी के मटके और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य के लिए प्रकृति से अच्छी गुरु नहीं है। आज तक मनुष्य ने जो कुछ हासिल किया वह सब प्रकृति से सीखकर ही किया है।वर्ड्सवर्थ के अनुसार, प्रकृति और हमारे पर्यावरण से हम जो सबक सीख सकते हैं, वे हमारे विवेक और सोचने के तरीके को आकार देने में सबसे गहन और जानकारी पूर्ण हैं। प्रकृति अपनी चीजों का उपभोग स्वयं कभी नहीं करती, उसकी हर चीज दुनिया के लिये होती है, उसके संसाधनों पर प्रत्येक प्राणी का समान अधिकार है, वह सब को बराबर देती है। प्रकृति हमें देना सिखाती है। जैसे प्रकृति हमें जीवन जीने के लिए सब कुछ देती है वैसे ही हम सबको प्यार, सम्मान, दुआ देना चाहिए।
प्रकृति अर्थात् माँ , जो जन्म देती है, सृजन करती है या यूँ कहें कि हमें पालती है,हमारा भरण पोषण करती है।जैसे माँ अपने बच्चे को 9 महीने अपने गर्भ में धारण करती है और उसका ख्याल रखती है,वैसे ही प्रकृति भी हमें चारों ओर से घेरे कर अपने भीतर धारण किए हुए है। पर माँ सिर्फ़ अपने बच्चे का ख्याल ही नहीं रखती बल्कि उसे शिक्षित भी करती है उसे सही और गलत का पाठ भी पढ़ाती है।ठीक उसी प्रकार प्रकृति भी हमें सिखाने का प्रयास करती है।प्रकृति ज्ञान का भण्डार है,इसमें अनेकों सजीव और निर्जीव वास करते हैं। किन्तु हमें सबसे कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। जिनमें सबसे पहली और बड़ी सीख है निस्वार्थ सेवा भावना। सूर्य,चन्द्रमा,धरती, आकाश, हवा, नदियाँ,पहाड़,पेड़-पौधे आदि सभी निस्वार्थ सेवा भाव रखते हैं। इन्होंने आज तक हमसे अपने लिए कुछ भी नहीं माँगा बल्कि हमें सदैव केवल दिया ही है।पेड़ों ने अपने फल नहीं खाएं,नदियों ने अपना पानी नहीं पिया,सूर्य और चंद्रमा अपना प्रकाश स्वयं नहीं लेते। इन्होंने अपने लिए कभी भी कुछ भी नहीं रखा। अब यहीं से दान और परोपकार की भावना का जन्म होता है।इसी प्रकार धरती से हमें धैर्य और सहनशक्ति तथा आकाश से विशाल हृदय बनने की सीख मिलती है। पहाड़ों से दृढ़ निश्चय और लक्ष्य से विचलित न होने तथा नदियों से हमें समानता की शिक्षा मिलती है।सूर्य हमें नियमितता और निरंतरता की शिक्षा तो देता ही है साथ ही साथ हमें दूसरों को सही राह दिखाना भी सिखाता है। चन्द्रमा से हमें बुरे समय व निराशा में मन को शान्त रखने और चींटी से अथक परिश्रम की शिक्षा मिलती है। ऐसे ही प्रकृति में हर किसी से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। ज़रूरत है बस उसे समझने की,उसे महसूस करने की। इसलिए प्रकृति को समझने और उससे जुड़ने का प्रयास करें उसे मिटाने का नहीं।
प्रत्येक भारतवासी को यह प्रण लेना होगा कि इस पावन धरा की रज का एक – एक कण है चंदन, आओ हम सब मिलकर करें – प्रकृति वंदन।
अशुद्ध वाक्य
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१.पाकिस्तान ने गोले और तोपों से आक्रमण किया।
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२.उसने अनेकों ग्रंथ लिखे।
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३.महाभारत अठारह दिनों तक चलता रहा।
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४.तेरी बात सुनते-सुनते कान पक गए।
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५.पेड़ों पर तोता बैठा है।
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६.उसने संतोष का साँस ली।
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७.सविता ने जोर से हँस दिया।
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८.मुझे बहुत आनंद आती है।
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९.वह धीमी स्वर में बोला।
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१०.राम और सीता वन को गई।
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११.मैं यह काम नहीं किया हूँ।
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१२.मैं पुस्तक को पढ़ता हूँ।
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१३.हमने इस विषय को विचार किया।
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१४.आठ बजने को दस मिनट है।
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१५.वह देर में सोकर उठता है।
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१६.मैं रविवार के दिन तुम्हारे घर आऊँगा।
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१७.कुत्ता रेंकता है।
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१८.मुझे सफल होने की निराशा है।
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१९.गले में ग़ुलामी की बेड़ियाँ पड़ गई।
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२०.गीता आई और कहा।
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२१.मैंने तेरे को कितना समझाया।
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२२.वह क्या जाने कि मैं कैसे जीवित हूँ।
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२३.किसी और लड़के को बुलाओ।
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२४.सिंह बड़ा बीभत्स होता है।
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२५.उसे भारी दु:ख हुआ।
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२६.सब लोग अपना काम करो।
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२७.क्या यह संभव हो सकता है ?
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२८.मैं दर्शन देने आया था।
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२९.वह पढ़ना माँगता है।
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३०.बस तुम इतने रूठ उठे बस
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३१.तुम क्या काम करता है ?
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३२.युग की माँग का यह बीड़ा कौन चबाता है।
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३३.वह श्याम पर बरस गया।
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३४.उसकी अक्ल चक्कर खा गई।
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३५.उस पर घड़ों पानी गिर गया।
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३६.वह लगभग दौड़ रहा था।
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३७.सारी रात भर मैं जागता रहा।
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३८.तुम बड़ा आगे बढ़ गया।
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३९.इस पर्वतीय क्षेत्र में सर्वस्व शांति है।
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उत्तर
१.पाकिस्तान ने गोलों
और तोपों से आक्रमण किया।
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२.उसने अनेक ग्रंथ लिखे।
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३.महाभारत अठारह दिन
तक चलता रहा।
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४.तेरी बातें सुनते-सुनते कान पक गए।
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५.पेड़ पर तोता बैठा है।
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६.उसने संतोष की साँस ली।
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७.सविता जोर से हँस दी।
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८.मुझे बहुत आनंद आता है।
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९.वह धीमे स्वर में बोला।
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११.मैंने यह काम नहीं किया है।
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१२.मैं पुस्तक पढ़ता हूँ।
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१३.हमने इस विषय पर विचार किया
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१४.आठ बजने में दस मिनट है।
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१५.वह देर से सोकर उठता है।
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१६.मैं रविवार को तुम्हारे घर आऊँगा।
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१७.कुत्ता भौंकता है।
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१८.मुझे सफल होने की आशा नहीं है।
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१९.पैरों में ग़ुलामी की बेड़ियाँ पड़ गई।
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२०.गीता आई और उसने कहा।
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२१.मैंने तुझे कितना समझाया।
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२२.वह क्या जाने कि मैं कैसे जी रहा हूँ।
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२३.किसी दूसरे लड़के को बुलाओ।
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२४.सिंह बड़ा भयानक होता है।
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२५.उसे बहुत दु:ख हुआ।
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२६.सब लोग अपना-अपना काम करो।
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२७.क्या यह संभव है ?
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२८.मैं दर्शन करने आया था।
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२९.वह पढ़ना चाहता है।
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३०.तुम इतने में रूठ गए।
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३१.तुम क्या काम करते हो ?
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३२.युग की माँग का यह बीड़ा कौन उठाता है।
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३३.वह श्याम पर बरस पड़ा।
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३४.उसकी अक्ल चकरा गई।
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३५.उस पर घड़ों पानी पड़ गया।
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३६.वह दौड़ रहा था।
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३७.मैं सारी रात जागता रहा।
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३८.तुम बहुत आगे बढ़ गए।
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३९.इस पर्वतीय क्षेत्र में
सर्वत्र शांति है।
४०.वह काना है
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मुहावरों से वाक्य बनाएँ :-
- अंगूठा दिखाना (मना करना) – जब मैंने अपने मित्र से सहायता माँगी तो उसने अंगूठा दिखा दिया ।
- अकल का अच्छा होना (बेवकूफ होना) – उसे समझाने की कोशिश करना व्यर्थ है । वह तो पूरा अकल का अँधा है.
- अंग-अंग ढीला होना (थक जाना) – दिन भर परिश्रम करने में मेरा अंग- अंग ढीला हो गया है ।
- अन्धे की लकड़ी (एकमात्र सहारा) – मोहन अपने बूढ़े माता-पिता के लिए अन्धे की लकड़ी है ।
- अन्धे को दीपक दिखाना (नासमझ को उपदेश देना) – भगवान कृष्ण दुर्योधन के धृष्टतापूर्ण व्यवहार से समझ गए थे कि उसे उपदेश देना अन्धे को दीपक दिखाना है ।
- अपना उल्लू सीधा करना (अपना मतलब निकालना) – स्वार्थी मित्रों से बचकर रहना चाहिए । उन्हें तो अपना उल्लू सीधा करना आता है ।
- अकल मारी जाना (घबरा जाना) – प्रश्न-पत्र देखते ही शांति की अकल मारी गई ।
- अकल चरने जाना (सोच-समझकर काम न करना) – बना बनाया मकान तुड़वा रहे हो, इसे बनवाते समय क्या तुम्हारी अकल चरने गई थी ।
- अपनी खिचड़ी अलग पकाना (सबसे अलग रहना) – अपनी खिचड़ी अलग पकाने से कोई लाभ नहीं होता इसलिए सब से मिल-जुलकर रहना चाहिए ।
- अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना (अपनी तारीफ खुद करना) – वीर अपने मुँह मियाँ मिट्ठू नहीं बनने वे तो वीरता दिखाते हैं.
- आँख उठाना (नुकसान पहुँचाना) – यदि तुमने मेरी ओर आँख उठा कर देखा तो मुझ से बुरा कोई न होगा ।
- आँखें चार होना (आमने-सामने होना) – पुलिस से आँखें चार होते ही चोर घबरा गया ।
- आँखें चुराना (नजर बचाना) – सुरेश ने कृष्ण से सौ रुपए उधार लिए थे । अब उसे देखते ही उस से आँखें चुराने लगता है ।
- आँखें दिखाना (क्रोध करना) – कक्षा में शोर सुनकर जैसे ही अध्यापक ने आँखें दिखाई कि सब चुप हो गए ।
- आँखें फेरना (प्रतिकूल होना) – मतलबी लोग अपना काम होते ही आँखें फेर लेते हैं ।
- आँखें खुलना (अकल आना) – कुणाल को समझाने से कोई लाभ नहीं है जब उसे ठोकर लगेगी तो उसकी आँखेंखुल जाएंगी ।
- आँखों का तारा (बहुत प्यारा) – राम दशरथ की आँखों के तारे थे ।
- आँखों में खटकना (बुरा लगना) – अनुशासनहीन बच्चे सब की आँखों में खटकते हैं ।
- आँच न आने देना (नुकसान न होने देना) – माँ अपनी सन्तान पर आँच नहीं आने देती ।
- कान खा लेना (किसी बात को बार-बार कहना) – सुचित्रा ने सुबह से पिकनिक पर जाने की रट लगाकर अपनी माता के कान खा लिए ।
- कान पर जूँ न रेंगना (कोई असर नहीं होना) – रजनी को चाहे कितना भी समझाते हो उसके कान पर जूँ नहीं रेंगती है.
- कान में पड़ना (सुनाई देना) – चिल्ला क्यों रहे हो, तुम्हारी बातें मेरे कान में पड़ रही हैं ।
- कानों को हाथ लगाना (तौबा करना) – कानों को हाथ लगाकर कहती हूँ कि अब कभी झूठ नहीं बोलूँगी।
- गड़े मुर्दे उखाड़ना (बीती हुई बातों को कहना) – रवि वर्तमान की बात नहीं करता, हमेशा गड़े मुर्दे उखाड़ता रहता है
- गागर में सागर भरना बड़ी बात थोड़े से शब्दों से कहना) – बिहारी ने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया है ।
- गुदड़ी का लाल (सामान्य परन्तु गुणी) – सतीश एक गरीबी रिक्शेवालों का पुत्र था लेकिन उसने भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रथम स्थान प्राप्त कर सिद्ध कर दिया है कि वह तो गुदड़ी का लाल है ।
- घाव पर नमक छिड़कना (दुःखी को और दुःखी करना) – महंगाई के इस युग में निर्धन कर्मचारियों के भत्ते बन्द करना घाव पर नमक छिड़कना है ।
- घी के दिये जलाना (बहुत प्रसन्न होना) – अपने सैनिकों की विजय का समाचार सुनकर भारतवासियों ने घी के दिये जलाए ।
- चादर के बाहर पैर पसारना (आय से अधिक खर्च करना) – चादर के बाहर पैर पसारने वाले लोग सदा दुःखी रहते है ।
- चूड़ियाँ पहनना (कायर) – जो सैनिक युद्ध में जाने से डरते हैं, उन्हें घर में चूड़ियाँ पहन कर बैठना चाहिए ।
- चोली-दामन का साथ (सदा साथ रहना) – राम शाम चाहे कितना झगड़ा कर लें फिर भी उनमें चोली दामन का साथ है क्योंकि वे एक-दृस्रे के बिना रह नहीं सकते ।
- छोटा मुँह बड़ी बात (अपनी हैसियत से बढ्कर बात करना) – चींटी ने कहा मैं हाथी को मार दूँगी । उस का ऐसा कहना तो छोटा मुँह बड़ी बात है ।
- टस से मस न होना (परवाह नहीं करना) – शिव को कितना भी समझाओ कि बुरे लोगों का साथ नहीं करो, परन्तु वह तो टस से मस नहीं होता और उन्हीं लोगों का साथ करता है ।
- दिन फिरना (भाग्य बदलना) – कभी दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि सबके दिन फिरते हैं ।
- धूप में बाल सफेद न होना (अनुभवी होना) – देखो, मेरा कहना मान लो, मैंने धूप में बाल सफेद नहीं किए ।
- निन्यानवे के फेर में पड़ना (असमंजस में पड़ना) – निन्यानवे के फेर में पड़कर मनुष्य का जीवन दुखी हो जाता है ।
- पगड़ी उछालना (अपमान करना) – बड़ों की पगड़ी उछालना बुरी बात है ।
- पत्थर की लकीर होना (पक्की बात होना) – सरदार पटेल का कहना पत्थर की लकीर होता था ।
- पाँचों उंगलियाँ घी में होना (बहुत लाभ होना) – वस्तुओं के भाव चढ़ जाने से व्यापारियों की पाँचों उंगलियाँ घी में होती हैं ।
- भीगी बिल्ली बनना (भयभीत हो जाना) – पुलिस को देखते ही चोर भीगी बिल्ली बन गया ।
- भैंस के आगे बीन बजाना (समझाने पर भी कोई प्रभाव न होना) – नशे वाले को कितना भी नशा छोड़ने के लिए कहो उसके सामने सब कुछ कहना तो भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही होता है ।
- मिट्टी का माधो (कुछ न करने वाला) – जतिन बिलकुल मिट्टी का माधो है, उसे कितना ही समझाओ उस पर कोई असर नहीं होता ।
- फूँक-फूँक कर कदम रखना (सावधानी से काम करना) – आजकल सब काम करने से पहले फूँक-फूँक कर कदम रखने चहिए ।
- बगलें झोंकना (जवाब न दे सकना) – अध्यापक के प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकने पर सुखबीर बगलें झाँकने लगा ।
- लगा में भंग डालना (आनंद में बाधा) – इतना अच्छा मैच हो रहा था कि वर्षा ने रंग में भंग डाल दिया ।
- लोहा लेना (डट कर टक्कर लेना) – चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस से लोहा लिया और बहुमत से विजय प्राप्त की ।
- श्री गणेश करना (प्रारम्भ करना) – परीक्षाओं के सिर पर आते ही रमन ने पड़ने का श्रीगणेश कर दिया ।
- हक्का-बक्का रहना (आश्चर्य चकित होना) – अपने शत्रु को अपने घर आया देखकर मनजीत हक्का-बक्का रह गया ।
- हाथ मलते रह जाना (पछताना) -सारा साल इन्द्रजीत पढ़ी नहीं । परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाने पर हाथ मलते रह गई ।
- हाथों के तोते उड़ जाना (बहुत व्याकुल तथा शोकग्रस्त होना) -पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके हाथों के तोते उड़ गए ।
अपठित गद्यांश :-
एक पोस्टमैन ने घर के दरवाजे पर दस्तक देते हुए कहा, “चिट्ठी ले लीजिये”। अंदर से एक बालिका की आवाज़ आई, “आ रही हूँ”। लेकिन तीन से चार मिनट तक काेई न आया ताे ने फिर कहा, “अरे भाई! घर में काेई है क्या, अपनी चिट्ठी ले लाे”। लड़की की फिर आवाज़ आई, “पोस्ट्मैन साहब, दरवाजे के नीचे से चिट्ठी अंदर डाल दीजिए, मैं आ रही हूँ”। “नहीं, मैं खड़ा हूँ, रजिस्टर्ड पत्र है, पावती पर तुम्हारे हस्ताक्षर चाहिए”।
करीबन छह से सात मिनट के बाद दरवाज़ा खुला। पोस्ट्मैन इस देरी के लिए झल्लाया हुआ ताे था ही और उस पर चिल्लाने वाला था लेकिन, दरवाज़ा खुलते ही वह चाैंक गया। एक अपाहिज कन्या जिसके पाँव नहीं थे, सामने खड़ी थी।
पोस्टमैन चुपचाप पत्र देकर और उसके हस्ताक्षर लेकर चला गया। सप्ताह – दो सप्ताह में जब कभी उस लड़की के लिए डाक आती, पोस्टमैन एक आवाज़ देता और जब तक वह कन्या न आती तब तक खड़ा रहता। एक दिन लड़की ने पोस्टमैन काे नंगे पाँव देखा।
दिपावली नज़दीक आ रही थी। उसने सोचा पोस्टमैन काे क्या उपहार दूँ।
एक दिन जब पोस्टमैन डाक देकर चला गया, तब उस लड़की ने जहाँ मिट्टी में पोस्टमैन के पाँव के निशान बने थे, उस पर काग़ज रखकर उन पाँवाें का चित्र उतार लिया। अगले दिन उसने अपने यहाँ काम करने वाली बाई से उस नाप के जूते मँगवा लिये।
दिपावली आई और उसके अगले दिन पोस्टमैन ने गली के सब लाेगाें से ताे उपहार माँगा और साेचा कि अब इस बिटिया से क्या उपहार लेना ? पर गली में आया हूँ ताे उससे मिल ही लूँ। उसने दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से आवाज़ आई, “काैन ?” पोस्टमैन उत्तर मिला। कन्या हाथ में एक उपहार लेकर आई और कहा, “अंकल, मेरी तरफ से दिपावली पर आपकाे भेंट है। “पोस्टमैन ने कहा” तुम मेरे लिए बेटी के समान हाे, तुमसे मैं उपहार कैसे लूँ?” कन्या ने आग्रह किया कि मेरी इस उपहार के लिए मना न करें।
ठीक है, कहते हुए पोस्टमैन ने पैकेट ले लिया। कन्या ने कहा, “अंकल इस पैकेट काे घर ले जाकर खाेलना। घर जाकर जब उसने पैकेट खाेला ताे विस्मित रह गया, क्योंकि उसमें एक जाेड़ी जूते थे। उसकी आँखे भर आई। अगले दिन वह ऑफ़िस पहुँचा और पोस्टमास्टर से फरियाद की कि उसका तबादला फाैरन कर दिया जाए। पोस्टमास्टर ने कारण पूछा, ताे पोस्टमैन ने वे जूते टेबल पर रखते हुए सारी कहानी सुनाई और भीगी आँखाें और रूंधे कंठ से कहा, “आज के बाद मैं उस गली में नहीं जा सकूँगा। उस अपाहिज बच्ची ने मेरे नंगे पाँवाें काे ताे जूते दे दिये पर मैं उसे पाँव कैसे दे पाऊँगा ?”
सीख : संवेदनशीलता का यह श्रेष्ठ दृष्टांत है। संवेदनशीलता यानि, दूसराें के दुःख दर्द काे समझना, अनुभव करना और उसके दुःख-दर्द में भागीदारी करना, उसमें शरीक हाेना। एक ऐसा मानवीय गुण है जिसके बिना इंसान अधूरा है।
प्रश्न : दरवाज़ा खुलने के बाद पोस्ट्मैन की क्या प्रतिक्रिया हुई और
क्यों ?
प्रश्न : कन्या ने किसे ,क्या उपहार देने का विचार किया ? वह यह
उपहार कब और क्यों देना चाहती थी ? इसके लिये उसने क्या-
क्या किया ?
प्रश्न : उपहार देते समय कन्या ने पोस्टमैन से क्या कहा ? पोस्टमैन
ने कन्या को क्या उत्तर दिया ?
प्रश्न: उपहार देखकर पोस्टमैन की क्या प्रतिक्रिया हुई ? उसने क्या
करने का निश्चय किया ?
प्रश्न : प्रस्तुत गद्यांश का एक उचित शीर्षक लिखकर इससे प्राप्त
होने वाली सीख की चर्चा करें ।
निबंध लेखन [ ISC 2017 ]
विषय : पर्यटन एक बड़ा उद्योग बन गया है जिसके कारण सांस्कृतिक धरोहरें नष्ट हो रही हैं। इनके बचाव के लिए सुझाव दीजिए ताकि यह उद्योग फलता फूलता रहे। इस विषय के अन्तर्गत विस्तार से लिखें।
प्रस्तावना:
पर्यटन एक ऐसी यात्रा है जो मनोरंजन या फुरसत के क्षणों का
आनंद उठाने के उद्देश्यों से की जाती है। विश्व पर्यटन संघठन के अनुसार पर्यटक वे लोग हैं जो "यात्रा करके अपने सामान्य वातावरण से बाहर के स्थानों में रहने जाते हैं, यह दौरा ज्यादा से ज्यादा एक साल के लिए मनोरंजन, व्यापार, अन्य उद्देश्यों से किया जाता है, यह उस स्थान पर किसी ख़ास क्रिया से सम्बंधित नहीं होता है। पर्यटन दुनिया भर में एक आरामपूर्ण गतिविधि के रूप में लोकप्रिय हो गया है।
चिन्तनात्मक विकास:
पर्यटन का महत्त्व प्रत्येक देश में स्वीकार किया जा चुका है । पाश्चात्य जगत् के प्रख्यात विचारक मांटेन का कथन है कि पर्यटन के अभाव में कोई व्यक्ति पूर्ण शिक्षित नहीं कहा जा सकता । आधुनिक युग में प्रत्येक शिक्षा-प्रणाली में पर्यटन की योजना अनिवार्य रूप से सन्निविष्ट है ।पर्यटन की प्रेरणा राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, व्यापारिक आदि अनेक कारणों से प्राप्त हो सकती है । इनके अतिरिक्त मनोरंजन, अनुसंधान, अध्ययन, स्वास्थ्य-लाभ अथवा अन्य व्यक्तिगत कारण भी पर्यटन के मूल में हो सकते हैं । सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए संसार के सभी सभ्य देशों के बीच नागरिकों की यात्रा अब नित्य की दिनचर्या है ।भारत एक विशाल देश है । इस बात का परिचय हमें यहाँ विद्यमान पर्यटन स्थलों से मिलता है । पर्यटन यहाँ एक वृहत्तर उद्योग के रूप मे विकसित हो रहा है । यद्यपि इस उद्योग में कुछ समय पूर्व मन्दी रही क्योंकि आतंकवाद के कारण भारतीय परिस्थितियाँ खराब थी तथापि अब यह पुन: पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है ।विदेशी पर्यटकों के लिए भारत में अनेक आकर्षण हैं । विगत पंद्रह-सोलह वर्षों में विदेशी पर्यटकों की संख्या में ८० प्रतिशत की वृद्धि हुई है, फिर भी अभी और वृद्धि की संभावना है । परंतु इसमें हमारे सीमित साधन बाधक हैं, जिसके कारण यहाँ पर्यटकों के ठहरने के स्थान, परिवहन, मनोरंजन आदि की सुविधाएँ बहुत अधिक नहीं बढ़ाई जा सकतीं; किंतु संगठित प्रयत्न करके कम-से-कम समय में उसे दूर किया जा सकता है । सरकार की ओर से कोलकाता, मुंबई, वाराणसी, उदयपुर, बंगलौर तथा अन्य महत्त्वपूर्ण स्थानों में होटलों के निर्माण और विस्तार की योजना है ।
प्रत्येक राज्य अथवा देश का अपना एक विशेष मानवीय एवं भौतिकीय सौन्दर्य होता है । वस्तुत: प्रत्येक देश का सौन्दर्य वहाँ का प्राकृतिक वातावरण, ऐतिहासिक स्थल, संस्कृति एवं सभ्यता होती है और इसी आकर्षण के वशीभूत ही लोग विभिन्न देशों अथवा राज्यों में भ्रमण हेतु जाते हैं ।भारत में मेलों और त्योहारों की प्राचीन परंपरा रही है । विदेशी पर्यटक इन्हें देखने को लालायित रहते हैं । अंतरराष्ट्रीय पर्यटन वर्ष में इनका आयोजन पर्यटकों के लिए विशेष रूप से आकर्षक रहा । केरल का ओणम (तिरुओणम्), चेन्नई का पोंगल, मैसूर का दशहरा, गुजरात का नवरात्र, राजस्थान का गणगौर, कोलकाता की दुर्गा-पूजा, दिल्ली की होली आदि देश के विभिन्न भागों में मनाए जानेवाले ऐसे ही त्योहार हैं ।दिल्ली के लालकिले में ‘ध्वनि और प्रकाश’ का कार्यक्रम संध्याकालीन मनोरंजन प्रदान करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है । अब आगरा, गोलकुंडा, अजमेर, चित्तौड़गढ़ जैसे स्थानों पर भी ऐसे कार्यक्रम करने की योजना है । गणतंत्र दिवस भी देश के राष्ट्रीय त्योहारों में से एक है ।इस अवसर पर दिल्ली की गणतंत्र दिवस परेड पहले से ही पर्यटकों को बहुत आकर्षित करती आई है । पर्यटन के महत्त्व पर २६ जनवरी, २००६ को परेड में एक विशेष झाँकी प्रस्तुत की गई थी । पर्यटन की सफलता सुविधाओं के विकास पर निर्भर करती है, साथ ही जनता का योगदान भी उतना ही महत्वपूर्ण है । जनता का आतिथ्य और शिष्टता पर्यटकों को आकर्षित करती है ।
वास्तव में यही पर्यटन है । पर्यटन को उद्योग का दर्जा देने के पश्चात् सरकार की मुख्य कोशिश रही है कि इससे अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा कमाई जाए । उसने उदार नीति अपनाई और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अनेक रियायतें दी ।
इन रियायतों व सुविधाओं के मिलने पर अनेक उद्योगपति इस व्यापार की तरफ आकथित हुये और ? उन्होंने संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू कर दिया । परन्तु आज पर्यटन उद्योग की यह कामधेनु पर्यावरण को चरने वाली साबित हो रही है ।
स्थिति यह हो गई है कि सरकार को स्वयं नहीं मालूम कि पर्यटन उद्योग सम्बंधी रियायतों की सीमा क्या होनी चाहिए । पर्यटन पर्यावरण के साथ ही स्थानीय संस्कृति और परम्परा भी नष्ट-भ्रष्ट हो रही है । इस प्रकार पर्यटन औपनिवेशिक शोषण का ही नया माध्यम बन गया है ।
अपठित गद्यांश : दिनांक - २६/१०/१७
जुआरी ने कहा – “ आपकी बात सच है। सच में, मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। ये भी निश्चित है कि उन पापों की सज़ा मुझे भुगतनी पड़ेगी लेकिन मैंने कभी तो कोई पुण्य का काम किया होगा। उस पर भी तो विचार कीजिए। ” चित्रगुप्त ने उसके जीवन का लेखा-जोखा देखा। फिर वे बोले तुमने मरने से पहले एक बार थोड़े से फूल और कुछ सामान भगवान शंकर को अर्पित किए थे। इसी कारण तुम कुछ देर स्वर्ग जाने के अधिकारी बन गए हो। तुम्हें तीन घड़ी के लिए स्वर्ग का सिंहासन मिलेगा। अब तुम बताओ पहले अपने पुण्य का फल चाहते हो या अपने पापों का। जुआरी बोला- “ हे देव नर्क में तो मुझे लंबे समय तक रहना है। पहले मुझे स्वर्ग का सुख भोगने के लिए भेज दीजिए। ” तब यमराज की आज्ञा से उस जुआरी को स्वर्ग में भेज दिया गया। देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र को समझाया कि तुम तीन घड़ी के लिए अपना यह सिंहासन इस जुआरी के लिए छोड़ दो। तीन घड़ी के बाद यहाँ आ जाना। इंद्र ने वैसा ही किया। इंद्र के जाते ही वह जुआरी स्वर्ग का राजा बन गया। उसने मन में विचार किया कि अब भगवान शंकर की शरण में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। उसने खुलकर चीज़ों का दान किया। उसने इंद्र का ऐरावत महर्षिं अगस्त्य को दान किया। कामधेनु गाय महर्षि वशिष्ठ को दान कर दी। चिंतामणि रत्नमाला महर्षि मालव को भेंट कर दी। कल्प वृक्ष कौडिण्य मुनि को दान कर दिया। तीन घड़ी के बाद उसे वापस नर्क भेज दिया गया। जब इंद्र लौटकर आए तो सारी अमरावती ऐश्वर्य विहीन हो गई थी। वे बृहस्पति जी को लेकर यमराज के पास पहुँचे और क्रोधित हुए। वे बोले उस जुआरी को राजा बनाकर आपने गलत काम किया। उसने तो वहाँ की सारी बहुमूल्य वस्तुएँ दान में दे डालीं। यह सुनकर धर्मराज ने उत्तर दिया- “ देवराज आप बूढ़े हो गए हैं, लेकिन अभी तक आपकी राज्य की विषय आसक्ति दूर नहीं हुई है। उस जुआरी का एक पुण्य सौ यज्ञों से भी अधिक महान है, क्योंकि उसके किसी पुण्य में कुछ पाने की इच्छा नहीं थी। अब आपके लिए यही ठीक होगा कि आप ऋषियों के चरण पकड़कर अपने रत्नादि वापस माँग लें। ”
लगा ?
किया ?
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नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति:।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया…
व्यापक अर्थ में प्रकृति अर्थात् ब्रह्मांड एवं ब्रह्मांड अर्थात् जीवन, फिर कैसे हम इस प्रकृति, इस ब्रह्मांड से इतने विरक्त हो सकते हैं कि हमारा अस्तित्व ही संकट में आ जाए? कैसे हम एक माँ के बिना उसकी संतान की परिकल्पना कर सकते हैं? माँ अर्थात् जीवन, संतान अर्थात आदाता। जिस संबंध में माँ सदैव देने के लिए तत्पर रहती हो तथा संतान लेने के लिए तो क्या उस संतान का दायित्व नहीं बनता कि वह अपनी माँ को और इस संबंध को सर्वोपरि माने, उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सतत प्रयास करता रहे।
प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य के लिए धरती उसके घर का आंगन, आसमान छत, सूर्य-चांद-तारे दीपक, सागर-नदी पानी के मटके और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य के लिए प्रकृति से अच्छी गुरु नहीं है। आज तक मनुष्य ने जो कुछ हासिल किया वह सब प्रकृति से सीखकर ही किया है।वर्ड्सवर्थ के अनुसार, प्रकृति और हमारे पर्यावरण से हम जो सबक सीख सकते हैं, वे हमारे विवेक और सोचने के तरीके को आकार देने में सबसे गहन और जानकारी पूर्ण हैं। प्रकृति अपनी चीजों का उपभोग स्वयं कभी नहीं करती, उसकी हर चीज दुनिया के लिये होती है, उसके संसाधनों पर प्रत्येक प्राणी का समान अधिकार है, वह सब को बराबर देती है। प्रकृति हमें देना सिखाती है। जैसे प्रकृति हमें जीवन जीने के लिए सब कुछ देती है वैसे ही हम सबको प्यार, सम्मान, दुआ देना चाहिए।
प्रकृति अर्थात् माँ , जो जन्म देती है, सृजन करती है या यूँ कहें कि हमें पालती है,हमारा भरण पोषण करती है।जैसे माँ अपने बच्चे को 9 महीने अपने गर्भ में धारण करती है और उसका ख्याल रखती है,वैसे ही प्रकृति भी हमें चारों ओर से घेरे कर अपने भीतर धारण किए हुए है। पर माँ सिर्फ़ अपने बच्चे का ख्याल ही नहीं रखती बल्कि उसे शिक्षित भी करती है उसे सही और गलत का पाठ भी पढ़ाती है।ठीक उसी प्रकार प्रकृति भी हमें सिखाने का प्रयास करती है।प्रकृति ज्ञान का भण्डार है,इसमें अनेकों सजीव और निर्जीव वास करते हैं। किन्तु हमें सबसे कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। जिनमें सबसे पहली और बड़ी सीख है निस्वार्थ सेवा भावना। सूर्य,चन्द्रमा,धरती, आकाश, हवा, नदियाँ,पहाड़,पेड़-पौधे आदि सभी निस्वार्थ सेवा भाव रखते हैं। इन्होंने आज तक हमसे अपने लिए कुछ भी नहीं माँगा बल्कि हमें सदैव केवल दिया ही है।पेड़ों ने अपने फल नहीं खाएं,नदियों ने अपना पानी नहीं पिया,सूर्य और चंद्रमा अपना प्रकाश स्वयं नहीं लेते। इन्होंने अपने लिए कभी भी कुछ भी नहीं रखा। अब यहीं से दान और परोपकार की भावना का जन्म होता है।इसी प्रकार धरती से हमें धैर्य और सहनशक्ति तथा आकाश से विशाल हृदय बनने की सीख मिलती है। पहाड़ों से दृढ़ निश्चय और लक्ष्य से विचलित न होने तथा नदियों से हमें समानता की शिक्षा मिलती है।सूर्य हमें नियमितता और निरंतरता की शिक्षा तो देता ही है साथ ही साथ हमें दूसरों को सही राह दिखाना भी सिखाता है। चन्द्रमा से हमें बुरे समय व निराशा में मन को शान्त रखने और चींटी से अथक परिश्रम की शिक्षा मिलती है। ऐसे ही प्रकृति में हर किसी से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। ज़रूरत है बस उसे समझने की,उसे महसूस करने की। इसलिए प्रकृति को समझने और उससे जुड़ने का प्रयास करें उसे मिटाने का नहीं।
प्रत्येक भारतवासी को यह प्रण लेना होगा कि इस पावन धरा की रज का एक – एक कण है चंदन, आओ हम सब मिलकर करें – प्रकृति वंदन।
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